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________________ aronwww Armwarwww श्रीप्रवचनसार मापाटीका। [१५९ अभिप्राय यही झलकता है कि जो छनस्थ क्षयोपशम ज्ञानी हैं वे अपने अपने विषयको तो जानसक्ते हैं परंतु बहुतसे ज्ञेय उनके ज्ञानके बाहर रहनाते हैं । जिनको सिवाय क्षायिक फेवलज्ञानके और कोई जान नहीं सका है । तात्पर्य यह है कि केवलज्ञान ही उपादेय है, ये चार ज्ञान हेय हैं । तथापि इनमें से जो आत्म रवसंवेदनरूप भावश्चतज्ञान है जिसमें पास्माकी आत्मामें स्वसमयरूप प्रवृत्ति होती है वह इन्द्रिय और ननके विकल्पोंसे रहित निजास्वादरूप आनंदमई ज्ञान है सो उपादेय है क्योंकि यही भेद विज्ञानमूलक मागज्ञान फेवलज्ञानको उत्पत्तिका बीम है। इसलिये स्वतंत्रताके चाहनेवाले ज्ञानीको इन्द्रिय और मनके विकरूपात्मक ज्ञानमें जो इन्द्रियोंके क्षाणिक मुखळे साधन हैं, रति छोड़कर अतीन्द्रिय ज्ञान और थानन्दले फारणरूप स्वसंवेदन शानमें तन्मयता करनी चाहिये। उत्पालिका-यागे कहते हैं कि भतीन्द्रिय रूप केवलज्ञान ही भूत भविष्यको व सूक्ष्म आदि पदार्थीको जानता है। अपदसं सपदेसं, मुत्तमहत्तं ८ पाजयमजादं । पलधं गदं च जाणदितणाणमाददिय भणियं ॥४१॥ अप्रदेश सरदेश मूर्तममून व पपमवातम् । प्रलयं गतं च जानाति तज्ज्ञानरसन्द्रिय भणितम् ॥४॥ सामान्धार्थ-जो ज्ञान प्रदेशहित कालाणु व सप्रदेशी पांच अस्विकायको, मूर्तको, अमूर्तको तथा भावी और भूत पर्यायोंको जानता है वह ज्ञान अतींद्रिय कहा गया है।
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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