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________________ 'श्रीमवचनसार भाषाका | [ १५७ मूर्तीक पदार्थ है । इस कारण से इन्द्रिय ज्ञानके द्वारा " सर्वज्ञ नहीं होक्ता । इसी लिये ही अतीन्द्रिय ज्ञानकी उत्पत्तिका कारण जो रागद्वेषादि विकल्प रहित स्वसंवेदन ज्ञान है उसको छोड़कर पंचेन्द्रियोंके सुखके कारण इन्द्रिय ज्ञानमें तथा नाना मनोरथके विकल्प नाक स्वरूप मन सम्बन्धी ज्ञानमें जो प्रीति करते हैं वे सर्वज्ञ पदको नहीं पाते हैं ऐसा सूत्रका अभिप्राय है । भावार्थ - इस गाथा में आचायने केवलज्ञानको श्रेष्ठ तथा उससे नीचे चारों ही क्षयोपशम ज्ञानको हीन बताया है। प्रथम मुख्यतासे मतिज्ञानको लिया है। टीकाकार ने नैयायिक मतके अनुसार ज्ञानका स्वरूप बताकर उस इंद्रियज्ञ नको बिलकुल असमर्थ बताया है । अर्थात् न वह ज्ञान वर्तमान में ही दूरवर्ती पदाaat या सूक्ष्म पदार्थो को जान सक्ता है और न वह इन्द्रियज्ञान उस केवलज्ञानका कारण ही है जो सर्व ज्ञेयोंको जाननेके लिये समर्थ है। जैनमत के अनुसार मतिज्ञान इन्द्रिय और मनसे होता है । सो मतिज्ञान किसी भी पदार्थको प्रथम समय में सामान्य दर्शनरूप ग्रहण करता है फिर उसके कुछ विशेषको जानता है तब अवग्रह होता है फिर और अधिक जानता तब ईहा होती फिर उसका निश्चयकर पाता तब अवाय होता फिर दृढ़ निश्चय करता तब धारणा होती । यह मतिज्ञान क्रम क्रमसे वर्तन करता तथा प्रत्येक इन्द्रिय अपने२ विषयको अलगर ग्रहण करती। चार इंद्रियें तो पदार्थसे स्पर्शकर तथा चक्षु व मन पदार्थसे दूर रहकर जानते हैं । मतिज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमके अनुसार बहुत ही थोड़े पदार्थोंका व उनकी कुछ स्थूल पर्यायोंका ज्ञान होता है।
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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