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________________ 'श्रीमचनसार भाषाटीका। [१४५ ज्ञान फिर दूमरे ज्ञानसे प्रकार्यता है ऐसा माना नायगा तो अनंत माकाश फैलनेवाली व जिप्तका दूर करना अतिकतिन ऐसी अनवस्था प्राप्त हो भायगी सो होना सम्मत नहीं है । इसलिये ज्ञान विपर प्रकाशक है ऐसा सुत्रका अर्थ है। भावार्थ-पहां भाचार्य ज्ञान और ज्ञेयका भेद करते हुए बताते हैं और इस बातका निराकरण करते हैं जो और ज्ञेयको सर्वथा एक मानते हैं । आत्मा द्रव्य है उसका ९ गुण ज्ञान है । उस ज्ञागसे ही आत्मा अपनेको भी जानता है और परको भी जानता है । ज्ञानकी अपेक्षा ज्ञेय और ज्ञेयकी अपेक्षा ज्ञान कहलाता है। यदि मात्र आत्मा ही आत्मा एक पदार्थ हो तो अन्य जेय न होनेसे आत्माका ज्ञान किसको जाने । इसलिये ज्ञानसे ज्ञेय भिन्न है । यद्यपि ज्ञानमें आप अपनेको भी जानने की शक्ति है इसलिये नात्माका ज्ञान ज्ञेय भी है परन्तु इतना ही नहीं है-जगतमें अनंत अन्य आत्माएं हैं, पुद्गल हैं, धर्मास्तिकाय, अध. मान्तिकाय, आकाश और काल द्रव्य हैं ये सब एक शुद्ध बगवमें रमण करनेवाले आत्माके लिये ज्ञेय हैं। इस कथनका म: । है कि हरएक आत्मा स्वभावसे ज्ञाता है परन्तु जानने योग्य ज्ञेय हरएक आत्माके लिये सर्व लोक मात्रके द्रव्य हैं जिप्तमें आप भी स्वयं शामिल है । ये सर्व ज्ञेय पदार्थ तीन प्रकारसे कहे जासके है वह वीन प्रकारसे कथन नीचे प्रकार हो सका है-- (१) द्रव्योंकी भूत, भविष्य, वर्तमान पर्यायकी अपेक्षा । (२) उत्पाद, व्यय, श्रीव्यकी अपेक्षा । (३) द्रव्य, गुण, पर्यायकी अपेक्षा ।
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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