SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ JANAAKANNAJAN RAMA . श्रीमवचनसार भाषाटीका। [१४१. दतीलेसे देवदत्त घातका काटनेवाला होता है वैसे मिन्न ज्ञानसे आत्मा ज्ञाता होवे कोई दोष नहीं है। उसके लिये कहते हैं कि ऐसा नहीं हो सका है। घास छेदने की क्रिया के सम्बन्धमें दलीला बाहरी उपकरण है सो भिन्न हो सका है परन्तु भीतरी उपकरण देवदत्तकी छेदन किया सम्बन्धी शक्ति विशेष है सो देवदत्तसे बभिन्न ही है भिन्न नहीं है। वैसे ही ज्ञानकी क्रियामें उपाध्याय, प्रकाश पुस्तक आदि बाहरी उपकरण भिन्न है तो हों इसमें कोई दोष नहीं है परन्तु ज्ञान शक्ति भिन्न नहीं है वह आत्माले अभिन्न है। यदि ऐसा मानोगे कि भिन्न ज्ञानसे आत्मा ज्ञानी होनाता है तब दूसरेके ज्ञानसे अर्थात् भिन्न ज्ञानसे सर्व ही कुंभ, खंभा आदि जड़ पदार्थ भी ज्ञानी होजायगे सो ऐसा होता नहीं। (णाणं) ज्ञान ( सयं) आप ही ( परिणमदि ) परिणमन करता है अर्थात, जब भिन्न ज्ञानसे आत्मा ज्ञानी नहीं होता है तब से घटकी उत्पत्तिमें मिट्टीका पिंड स्वयं उपादान कारणसे परिणमन करता है वैसे पदार्थोंके जानने में ज्ञान स्वयं उपादान कारणले परिणमन करता है तथा (सने अट्ठा ) व्यवहारनयसे सर्व ही ज्ञेय पदार्थ (णाणढ़िया ) ज्ञानमें स्थित हैं अर्थात् जैसे दर्पणमें प्रतिबिम्ब पड़ता है तैसे ज्ञानाकारसे ज्ञानमें झलकते हैं ऐसा अभिप्राय है। भावार्थ-यहां आचार्यने ज्ञान और भात्माकी एकताको दिखाया है तथा बताया है कि गुण और गुणी प्रदेशोंकी अपेक्षासे एक हैं। मात्मा गुणी है ज्ञान उसका गुण है इसलिये दोनोंका क्षेत्र एक है । गुण और गुणीमें संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजनकी अपेक्षा भेद है परंतु प्रदेशोंकी अपेक्षा अभेद है। जैसे अग्नि
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy