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________________ WARAM १२४] ' श्रीमवचनसार भाषार्टीका । जदितेण सन्ति अत्या,णाणे गाणंण होदि सबग। सध्यगयं वाणाणं, कहं ण णाणडिया अत्या ॥३१॥ यदि ते न सन्त्यार्या शने, ज्ञान न भवति सर्वगतम् । सर्वगतं वा शानं कथं न शानस्थिता अर्थाः ॥३॥ सामान्यार्थ-यदि वे पदार्थ केवलज्ञानमें न हो तो ज्ञान सर्वगत न होवे और जब ज्ञान सर्वगत है तो किस तरह पदार्थ ज्ञानमें स्थित न होंगे ? अवश्य होंगे। अन्दय सहित विशेषार्थ-(अदि) यदि (ते अट्ठा) ने पदार्थ ( णाण ) केवलज्ञान (ण संति) नहीं हों अर्थात् जैसे दर्पणमें प्रतिबिन्ध झतता है इस तरह पदाधं अपने ज्ञानाकारको समपर्ण करने के द्वारा ज्ञान। न झलझने हों तो (गाणं) केवलज्ञान । (सम्बगयं ) सर्वगत ( ण होइ ) नहीं होवे । (वा) अथवा यदि व्यवहारसे (णार्ण) केवलज्ञान (सव्वगयं) सर्वगत आपकी सम्मतिमें है तो व्यवहार नवसे (महा) पदार्थ अर्थात अपने ज्ञेयाभारको ज्ञानमें समर्पण करनेवाले पदार्थ (कई गो किस तरह नहीं ( णाद्वया) केवलज्ञानमें स्थित हैं किन्तु ज्ञानमें अवश्य तिष्ठने हैं ऐसा मानना होगा। यहां यह अभिप्राय है क्योंकि व्यवहार नयले ही जब ज्ञेयोंके ज्ञानाकारको ग्रहण करनेके द्वारा सर्वगत व्हा जाता है इसीलिये ही तव ज्ञेयोंके ज्ञानाशार समर्पण द्वारसे पदार्थ भी व्यवहारसे ज्ञान प्राप्त हैं ऐसा कह सके हैं। पदार्थोके आजारको अब ज्ञान ग्रहण करता है तब पदार्थ अपना आकार ज्ञानको देते हैं यह कहना होगा।
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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