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________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwww १२२] श्रीप्रवचनसार भापार्टीका । वर्तता है । भाव यह है कि जैसे इन्द्रनील नामका प्रधानरत्न कर्ता होकर अपनी नीलप्रभारूपी कारणसे दुधको नीला करके वर्तन करता है तैसे निश्चय रत्नत्रय स्वरूप परम सामायिक नामा संयमके द्वारा जो उत्पन्न हुआ केवलज्ञान सो आपा परको जाननेको शक्ति रखने के कारण सर्व अज्ञानके अंधेरेको तिरस्कार करके एक समयमें ही सर्व पदार्थोंमें ज्ञानाकारसे वर्तता है-यहां यह मतलब है कि कारणभूत पदार्थोके कार्य नो ज्ञानाकार ज्ञानमें झलकते हैं उनको उपचारसे पदार्थ कहते हैं। उन पदार्थोंमें ज्ञान वर्तन करता है ऐसा. कहते हुए भी व्यवहारसे दोष नहीं है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने ज्ञानकी महिमाको और भी दृढ़ किया है। और इन्द्रनीलमणिका दृष्टांत देकर यह बताया है कि जैसे प्रधान नीलरत्नको यदि सफेद दूधमें डाल दिया जाय तो वह नीलरत्न अपने आकार रूप दूधके भीवर पड़ा हुषा तथा दूधके आकार निश्चयसे न होता हुआ भी अपनी प्रभासे सर्व दुधमें व्याप्त होजाता है अर्थात् दूधका सफेद रंग छिप जाता है और उस दुधका नीला रंग होजाता है तब व्यवहारसे ऐसा कहते हैं कि नीलरत्नने सारे दूधको घेर लिया अथवा दूध नीलरत्नमें समा गया तैसे ही आत्माका पूर्ण केवलज्ञान निश्चयसे आत्माके आकार रहता हुमा आत्माको छोड़कर कहीं न जाता हुआ तथा न अन्य ज्ञेय पदार्थोको अपने निश्चयसे प्रवेश कराता हुआ अपनी अपूर्व ज्ञानकी सामर्थ्य से सर्व ज्ञेय पदार्थोको एक समयमें एक साथ जान लेता है।
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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