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________________ श्रीभवचनसार भाषाीका। [११९ सामान्यार्थ-ज्ञानी आत्मा ज्ञेय पदार्थोमें निश्चयसे नहीं पैठा है किन्तु व्यवहारसे पैठा नहीं है ऐसा नहीं है, किन्तु पैठा है जैसे चक्षु रूपी पदार्थोंमें निश्चयसे पैठी नहीं है किन्तु उनको देखती है इससे व्यवहारसे पैठी ही हुई है। ऐमा ज्ञानी जीव इन्द्रियोंसे रहित होता हुआ अपने अतीन्द्रिय ज्ञानसे ज्योंका त्यों यथार्थरूपसे सम्पूर्ण जगतको जानता देखता है। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-( अक्खातीदः ) इंद्रियोंसे रहित अतीन्द्रिय (णाणी) ज्ञानी आत्मा ( चक्खु) मांख (रूवम् इन ) जैसे रूपके भीतर वैसे (णेयेसु ) ज्ञेय पदार्थोंमें (ण पविट्ठः) निश्चयसे प्रवेश न करता हुआ अथवा (ण अविट्ठः) व्यवहारसे अप्रविष्ठ न होता हुभा अर्थात प्रवेश करता हुआ (णियदं ) निश्चितरूपसे व संशय रहितपनेसे ( असेसं ) सम्पूर्ण. (जगम् ) जगतको ( पस्सदि) देखता है ( जाणदि ) जानता है। जैसे लोचन रूपी द्रव्योंको यद्यपि निश्चयसे स्पर्श नहीं करता है तथापि व्यवहारसे स्पर्श कर रहा है ऐसा लोकमें झलकता है। तैसे यह आत्मा मिथ्यात्व रागद्वेष मादि आस्रव भावोंके और आत्माके सम्बन्धमें जो केवलज्ञान होनेके पूर्व विशेष भेदज्ञान होता है उससे उत्पन्न जो केवलज्ञान और केवल दर्शनके द्वारा तीन नगत और तीनकालवर्ती पदार्थों को निश्चयसे स्पर्श न करता हुआ भी व्यवहारसे स्पर्श करता है तथा स्पर्श करता हुआ ही ज्ञानसे जानता है और दर्शनसे देखता है । वह आत्मा अतीन्द्रिय सुखके स्वादमें परिणमन करता हुआ इन्द्रियों के विषयोंसे अतीत होगया है । इसलिये जाना जाता है कि निश्चयसे भात्मा पदार्थोंमें प्रवेश
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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