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________________ ११६ ] श्रीमवचनसार भाषाटीका | अन्वय सहित विशेषार्थ - (हि) निश्चय से (नाणी) केवलज्ञानी भगवान आत्मा (णाणसहावः ) केवलज्ञान स्वभावरूप है तथा (गाणिस्स) उस ज्ञानी जीवके भीतर (अत्था) तीन नगरके तीन काoad पदार्थ ज्ञेयस्वरूप पदार्थ (चाखुणां) आंखोंके भीतर (रुवाणि च ) रूपी पदार्थोंकी तरह ( अण्णोष्णेपु ) परस्पर एक दूसरेके भीटर (णेव वट्टेति) नहीं रहते हैं । जैसे भांखों के साथ रूपी मूर्तिक द्रव्योंका परस्पर सम्बन्ध नहीं है अर्थात् आंख शरीमैं अपने स्थानपर है और रूपी पदार्थ अपने आकारका समर्पण खोंमें करदेते हैं तथा आंखें उनके आकारोंको जानने में समर्थ होती हैं तैसे ही तीन लोक के भीतर रहने वाले पदार्थ तीन कालकी पर्यायोंमें परिणमन करते हुए ज्ञानके साथ परस्पर प्रदेशोंका सम्बन्ध न रखते हुए भी ज्ञानीके ज्ञानमें अपने आकार के देनेमें समर्थ होते हैं तथा अखंडरूपडे एक स्वभाव झलकनेवाला केवलज्ञान उन व्याकारोंको ग्रहण करने में समर्थ होता है ऐसा भाव है। भावार्थ - इस गाथा में आचार्यने बताया है कि सर्वव्यापक या सर्वगत जो पहले आत्माको या उसके ज्ञानको कहा है उसका अभिप्राय यह न लेना चाहिये कि अपने २ प्रदेशोंकी अपेक्षा एक द्रव्प दूसरोंमें प्रवेश करजाते हैं । किन्तु ऐसा भाव लेना चाहिये कि ज्ञानीफा ज्ञान तो आत्मा के प्रदेशोंमें रहता है। तब आत्मा जैसा आकार रखता है, उस ही आकार के प्रमाण आत्माका ज्ञान रहता है ? केवलज्ञानी भरतका आत्मा अपने शरीर मात्र आकार रखता है तथा सिद्ध भगवानका आत्मा अंतिम शरीरके 'किंचित उन अपना आकार रखता है । इसी आकारमें ज्ञान भी रहता 1
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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