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________________ nwarya ९८] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । पदार्थोको एक साथ प्रत्यक्ष जाननेको समर्थ, अविनाशी तथा अखंडपनेसे प्रकाश करनेवाले केवलज्ञानमें परिणमन करते हैं मतएव उनके लिये कोई भी पदार्थ परोक्ष नहीं है। ' भावार्थ-इस गाथामें भाचार्यने यह बताया है कि केवलज्ञानीकी अतीव भारी सामर्थ्य है। इन्द्रिय ज्ञानमें बहुत तुच्छ शक्ति होती है। जो इंद्रिय स्पर्शका विषय मानती है वह अन्य विषयोंको नहीं जान सक्ती, जो रसको मानती है वह गंधको नहीं जान सक्ती । इस तरह एक एक इंद्रिय एक एक विषयको जानती है। परंतु केवलज्ञानीको मात्मा सर्व ज्ञानावरणीय कर्मके नाश होनेसे ऐसी शक्ति पैदा होनाती है कि मात्माके असंख्यात प्रदेशों से हरएक प्रदेशमें सर्व ही इद्रियोंसे नो ज्ञान अलग २ क्रमसे होता है वह सर्व ज्ञान होसक्ता है अर्थात हरएक आत्माका प्रदेश सर्व ही विषयोंको एक साथ जाननेको समर्थ है। यहां तक कि तीनलोक तीन कालकी सर्व पर्यायोंको और अलोकाशको एक मात्माका प्रदेश जान सक्ता है। ऐमा निर्मल ज्ञान शुद्ध आत्मामें सर्व प्रदेशोंमें व्याप्त होता है। इस ज्ञानके लिये इन्द्रियोंकी सहायता विलकुल नहीं रही है। यह इन पराधीन नहीं है किन्तु स्वाधीन है । ऐसा केवलज्ञान एक सयुको स्वयं ही शुद्धोपयोगमें तन्मय होनेसे प्राप्त होता है । कोई कटल ज्ञानकी शक्तिको देता नहीं है न यह आत्मा किसी अन्य पदा. थंसे इस ज्ञानकी शक्तिको प्राप्त करता है । यह केवरज्ञान इस भात्माका ही स्वभाव है। यह इस मात्मामें ही था, आवरणके दुर होनेसे अपने ही द्वारा प्रकाशित होनाता है । ऐसे देवक.
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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