SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ swww AAAAMmmMwA .१०] : श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । 'भाव यह है कि मुनियोंके माहार शरीरकी स्थिति के लिये होता है, शरीरको ज्ञानके लिये रखते हैं, आत्मज्ञान कर्म नाशके लिये सेवन करते हैं क्योंकि कौक नाशसे परम सुख होता है। मुनि शरीरके बल, भाउ, चेष्ठा तथा तेजके लिये भोनन नहीं करते हैं किन्तु ज्ञान, संयम तथा ध्यानके लिये करते हैं। - उन भगवान केवलीके तो ज्ञान, संयम तथा ध्यान आदि गुण स्वभावसे ही पाए जाते हैं आहारके वलसे नहीं। उनको संयमादिके लिये माहारकी आवश्यका तो है नहीं क्योंकि कर्मोके आवरणके न होनेसे संपमादि गुण तो प्रगट हो रहे हैं फिर यदि कहो कि देहके ममत्वसे आहार करते हैं तो वे फेवली छद्मस्थ मुनियोंसे भी हीन होजायगे। - यदि कहोगे कि उनके अतिशयकी विशेषतासे प्रगटरूपसे भोजनको भुक्ति नहीं है गुप्त है तो परमौदारिक शरीर होनेसे मुक्ति ही नहीं है ऐसा अतिशय क्यों नहीं होता है। क्योंकि गुप्त भोजनमें मायाचारका स्थान होता है, दीनता की वृत्ति माती है तथा दूसरे भी पिंड शुद्धिमें कहे हुए बहुतसे दोष होते हैं जिनको दूसरे ग्रंथसे व तर्कशास्त्रसे जानना चाहिये। अध्यात्म होनेसे यहां अधिक नहीं कहा ४ यहां यह भावार्थ है कि ऐसा ही वस्तुका स्वरूप जानना चाहिये । इसमें हर नहीं करना चाहिये । खोटा आग्रह या हल करनेसे गोगटेन्ली उत्पत्ति होती है जिससे निर्विकार चिदानंदमई स्वभावरूप परमात्माकी भावनाका घात होता है।
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy