SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४]. श्रीमवचनसार भाषाटीका । सोक्खं वापुण दुक्खं, केवलणाणिस्स णथि देहगदें। जम्हा अदिदियतं, जादे तम्हा दुतं णेयं ।। २० ॥ सौख्यं वा पुनर्दुःख केवलशानिनो नास्ति देहगतम्। यस्मादतीन्द्रियत्वं जातं तस्मात्तु तज्झेयम् ॥ २०॥ सामान्यार्थ-केवलज्ञानीके शरीर सम्बन्धी सुख तथा दुःख नहीं होते हैं क्योंकि उनके अतीन्द्रियपना प्रगट होगया है इसलिये उनके तो अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रिय सुख ही जानने चाहिये। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(पुण) तथा (केवल. गाणिस्स ) केवलज्ञानीके (देहगर्द) देहसे होनेवाला अर्थात् शरीरके माघारमें रहनेवाली जिह्वा इन्द्रिय आदिके द्वारा पैदा होनेवाला (सोक्ख ) सुख (वा दुक्खं) और दुःख अर्थात् मसाता वेदनीय पादिक उदयसे पैदा होनेवाला क्षुषा आदिका दुःख (णत्थि) नहीं होता है । ( जम्हा) क्योंकि (अदिदियत्तं ) अतीन्द्रियपना अर्थात् मोहनीय आदि घातिया कौके मभाव होनेपर पांचों इंद्रि योंके विषय सुखके लिये व्यापारका अभावपना ऐसा अतीन्द्रियपना (जादं ) प्रगट होगया है (तम्हा) इसलिये ( तंदु) वह अर्थात अतीन्द्रियपना होनेके कारणसे अतीन्द्रिय ज्ञान और अतीन्द्रिय सुख तो (णेयं ) मानना चाहिये । भाव यह है कि जैसे लोहेके पिंडकी संगतिको न पाकर अग्नि हथौड़की चोट नहीं सहती है तसे यह आत्मा भी लोहपिंडके समान इन्द्रिय ग्रामोंका अभाव होनेसे अर्थात् इद्रियजनित ज्ञानके बन्द होनेसे सांसारिक सुख, तथा दुःखको अनुभव नहीं करता है।
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy