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________________ श्रीuturere भाषीका | [ ८१ इसका केवलज्ञान और अनंत सुख स्वभाव कर्मोंसे ढका हुआ है तनतक पांच इंद्रियोंके आधारसे कुछेक भल्पज्ञान व कुछेक भग सुखमें परिणमन करता है। फिर जब कभी विकल्प रहित स्वसंवेदन या निश्चल आत्मानुभव के बलसे कर्मों का अभाव होता है तब क्षयो-' पशमज्ञानके अभाव होनेपर इन्द्रियोंके व्यापार नहीं होते हैं तब अपने ही अतीन्द्रिय ज्ञान और सुखेको अनुभव करता है क्योंकि स्वभाव प्रगट होने परकी अपेक्षा नहीं है ऐसा अभिप्राय है । भावार्थ - इस गाथा का भाव यह है कि सर्वज्ञपना और अनंत निर्विकार निराकुल सुखपना इस आत्माका निज स्वभाव है । संसारी आत्माके कर्मोंका बंधन अनादिकालसे हो रहा है. 1 इससे स्वाभाविक ज्ञान और सुख प्रगट नहीं है । जितना ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम है उतना ही ज्ञान प्रगट है । सर्व संसारी जीवों में जबतक केवलज्ञान न हो मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तो प्रगट रहते ही हैं, परन्तु ये ज्ञान परोक्ष हैं - इन्द्रिय और मनकी सहायता विना नहीं होते हैं। जितना मतिज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम होता है उतना मतिज्ञान व जितना श्रुतज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम होता है उतना श्रुतज्ञान प्रगट रहता है ।' आत्माका साक्षात् प्रत्यक्ष केवलज्ञान होनेपर होता है वह केवलज्ञान सम्पूर्ण ज्ञानावरणीय के हट जानेसे ही प्रगट होता है तब पराधीन परके आश्नयसे जानने की जरूरत नहीं रहती है। मानाका ज्ञान स्वभाव है तत्र आत्मा लोक अलोक सर्वको उनके अनत द्रव्य और उनके अनंत गुण और अनंत पर्याय सहित एक ही समय में विना क्रमके जान लेता है | और यह ज्ञान कभी मिटता नहीं है
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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