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________________ न्यायशास्त्र सुबोषटीकायां तृतीयः परिच्छेदः। ६३ संस्कृतार्थ-- उपनीयते पुनरुच्यते इत्युपनयः, पक्षे हेतोपसंहार उपनय इत्यर्थः ।।४६॥ विशेषार्थ- इस पर्वत में अग्नि है क्योंकि धूम है। फिर कोई एक दृष्टान्त देकर कहा जाता है कि 'उसी तरह इसमें धूम है अथवा 'यह धूम वाला है' यहाँ पहिले धूम है कहा था फिर दुबारा कहा कि 'इसमें धूम है' इसलिए कहा जाता है कि पक्ष में साधन (हेतु) के दुहराने को उपनय कहते हैं ॥४६॥ निगमनस्य स्वरूपम्, निगमन का स्वरूप -- प्रतिज्ञायास्तु निगमनम् ॥४७॥ अर्थ-प्रतिज्ञा के दुहराने को निगमन कहते हैं। जैसे कि'धूम वाला' होने से यह अग्नि वाला है ॥४७॥ संस्कृतार्थ --पक्षस्य साध्यधर्मविशिष्टत्वेन प्रदर्शनं निगमनं प्रोच्यते ॥४७॥ अनुमानस्य भेदी, अनुमान के दो भेद-- तदनुमान घा॥४८॥ अर्थ-अनुमान के दो भेद हैं। संस्कृतार्थ-अनुमानं द्विविधम् ॥४८॥ अनुमानभेदस्पष्टीकरणम्, अनुमान के भेदों का स्पष्टीकरण स्वार्थपराभवात् ॥४९॥ अर्थ- स्वार्थ और परार्य के भेद से अनुमान के दो भेद हैं। संस्कृतार्थ- स्वार्थानुमान, परार्थानुमान चेत्यनुमानस्य बीभेदी स्तः ॥४ ॥ দ্বালুিাল ল, বালি কা লা— स्वार्थमा तलक्षणम् ॥५०॥
SR No.009944
Book TitlePariksha Mukha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandiswami, Mohanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages136
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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