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________________ - न्यायशास्त्रे सुबोषटीकायां द्वितीयः परिच्छेदः । ३६ अर्थ –'जो पदार्थ ज्ञान का कारण है वह ही ज्ञान का विषय होता है' यदि ऐसा माना जायगा तो इन्द्रियों के साथ व्यभिचार नाम का दोष आवेगा । क्योंकि इन्द्रियाँ ज्ञान की कारण तो हैं, परन्तु विषय नहीं हैं । अर्थात् अपने आप को नहीं जानती हैं । संस्कृतार्थ-यद्यत्कारणं तत्तत्प्रमेयम् इति व्याप्तिस्वीकारे तु इन्द्रियादिना व्यभिचारः संजायेत । चक्षुरादीनां ज्ञानम्प्रति कारणत्वेऽपि परिच्छेद्यत्वाभावात् ॥१०॥ विशेषार्थ- बौद्धों का कहना है कि जो-जो ज्ञान का कारण होता है वह-वह ही ज्ञान का विषय होता है । इस अनुमान में कारण होना हेतु है और विषय होना साध्य है। इन्द्रियों में हेतुत्व तो रह गया क्योंकि . वे ज्ञान में कारण हैं। परन्तु साध्यत्व 'विषय होना' नहीं रहा। क्योंकि ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो अपनी इन्द्रियों से अपनी ही इन्द्रियों को जान लेवे । इस प्रकार इन्द्रियों के साथ व्यभिचार दोष आता है ॥१०॥ पारमार्थिकप्रत्यक्षलक्षणम्, पारमाथिकप्रत्यक्ष का लक्षण আত্মীৰিীৰিত্ৰিকাভিলাফালাঙ্গিীত मुल्यम् ॥११॥ अर्थ- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप सामग्री की पूर्णता (एकता या मिलना) से दूर हो गये हैं समस्त प्रावरण जिसके ऐसे, इन्द्रियों की सहायता से रहित और पूर्णतया विशद ज्ञान को मुख्यप्रत्यक्ष कहते हैं ॥११॥ संस्कृतार्थ—सामग्री द्रव्यक्षेत्रकालभावलक्षणा, तस्याः विशेषः समनतालक्षणः, तेन विश्लेषितान्य खिलान्यावरणानि येन तत्तथोक्तम, इन्द्रियाण्य तिक्रान्तम् अतीन्द्रियम् । तथा च यज्ज्ञानं सामग्रीविशेषनिरा हेतु रहकर साध्य के न रहने को व्यभिचार दोष कहते हैं।
SR No.009944
Book TitlePariksha Mukha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandiswami, Mohanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages136
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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