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________________ श्रीमाणिक्यनन्दिस्वामिविरचिते परीक्षामुखे । धानं संस्कृतार्थ - एकस्याः प्रतीतेरन्या प्रतीतिः प्रतीत्यन्तरं तेनाव्यवतेन प्रतिभासित्वं वैशद्यं निगद्यते । तथा च ज्ञानान्तरव्यवधानरहितत्वे सति वर्ण संस्थानादिविशेष ग्रहणत्वं वैशद्यम् । विशदत्वं, निर्मलत्वं, स्पष्टत्वमिति तु वैशद्यस्यैव नामान्तराणि ॥|४|| ३४ विशेषार्थ - जो ज्ञान अपने स्वरूप का लाभ करने में दूसरे ज्ञानों की सहायता चाहता है वह परोक्ष कहलाता है । जैसे - स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और श्रागम । तथा जो ज्ञान दूसरे ज्ञानों की सहायता नहीं चाहते हैं वे प्रत्यक्ष कहे जाते हैं । उनमें जो खासियत होती है उसी को विशदता, वैशद्य, स्पष्टता या निर्मलता कहते हैं ॥४॥ सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का कारण और लक्षण इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः सांव्यवहारिकम् ॥ ५० a अर्थ – इन्द्रियों और मन की सहायता से होने वाले एकदेश विशद ( निर्मल) ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं । संस्कृतार्थ – यज्ज्ञानं देशतो विशदम् ( ईषन्निर्मलम् ) भवति, तथेन्द्रियाणां मनसश्च साहाय्येन समुत्पद्यते तत्सांव्यवहारिकप्रत्यक्षं प्रोच्यते । तद्यथा-समीचीनः प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपो व्यवहारः संव्यवहारः, तत्र भवं प्रत्यक्षं सांव्यवहारिकप्रत्यक्षमिति व्युत्पत्त्यर्थः ॥५॥ - विशेषार्थ – यह प्रत्यक्ष, मतिज्ञान का ही भेद है, जिसका श्री उमास्वामी महाराज ने 'मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्' इस सूत्र में दिये हुये मतिशब्द से उल्लेख किया है । इसके द्वारा प्रवृत्ति और निवृत्तिरूप व्यवहार चलता है, इसलिये इसको सांव्यवहारिक विशेषण दिया है, और थोड़ी निर्मलता लिये होता है,
SR No.009944
Book TitlePariksha Mukha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandiswami, Mohanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages136
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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