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________________ जैसे कोई व्यक्ति सदा द्रोणगिरि जाया करता है और वहाँ के रास्ते में जितने कूप तथा तड़ाग वगैरह पाते हैं सबको भली भांति जानता है । वह जब-जब वहाँ जाता है तब-तब पूर्व के परिचित चिह्नों को देखते ही जान लेता है कि यहाँ जल है और उन्हीं चिन्हों से यह भी जान लेता है; कि मुझे जो ज्ञान हुआ है वह बिलकुल ही ठीक है। इसमें यही प्रमाण है कि वह व्यक्ति ज्ञान होने के बाद ही शीघ्रता से कुत्रा या तालाब में लोटा डोबने लग जाता है। अगर उसे अपने ज्ञान की सचाई नहीं होती तो कभी ऐसा नहीं कर सकता था। इससे निश्चय होता है कि अभ्यासदशा में स्वतः ही प्रामाण्य का निश्चय होता है। ___ एक दूसरा व्यक्ति पहली ही बार द्रोणगिरि गया और रास्ते में जैसे अन्य जलाशयों पर चिह्न होते हैं वैसे चिह्न देखे, तब उसे ज्ञान हुमा कि यहाँ जल है। परन्तु यह निर्णय नहीं कर सका कि किस खास स्थान पर जल है। अर्थात् ५० गज इस तरफ है या उस तरफ। इसके बाद जब वह देखता है कि अमुक भोर से स्त्रियाँ पानी लिये पा रही हैं अथवा शीतल और सुगन्धित वायु पा रही है तब वह जान लेता है कि यह मेरा 'जलज्ञान' सच्चा है। यदि सच्चा नहीं होता; तोये स्त्रियां जल लेकर नहीं पातीं। हिर वह ५० गज आगे जा कर कुमा में लोटा डोब कर पानी भर लेता है । उसका पहला ज्ञान यज्ञपि सत्य था, परन्तु उस सत्यता का निर्णय दूसरे ही कारणों से हुभा। इससे मालूम होता है कि अनभ्यासदशा में प्रामाण्य का निर्णय परत: होता है ॥१७॥ इति प्रथमः परिच्छेदः समाप्तः ।
SR No.009944
Book TitlePariksha Mukha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandiswami, Mohanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages136
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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