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________________ न्यायशास्त्र सुबोषष्टीकायां प्रथमः परिच्छेदः - २३ पदार्थों को भी जानता है अर्थात् अपने स्वरूप का तथा पर पदार्थों के स्वरूप का निर्णय करता है वही प्रमाण या सञ्चा-ज्ञान कहा जाता है। 'व्यतिकीर्णवस्तुव्यावृत्तिहेतु लक्षणम्' मिली हुई अनेक वस्तुओं में से किसी एक वस्तु को जुदे कराने वाले हेतु को लक्षण कहते हैं ॥१॥ प्रमाण का लक्षणान्तर या ज्ञान का प्रमाणपना-- ছিলাক্সিসিঘিাষঙ্গই ছি অক্সা ববী জালাফীৰ না। अर्थ-जो सुख की प्राप्ति तथा दुःख के दूर करने में समर्थ होता है उसे प्रमाण कहते हैं। ऐसा वह प्रमाण 'शान' ही हो सकता है, अन्य सन्निकर्ष आदिक नहीं ॥२॥ संस्कृतार्थ --इन्द्रियार्थयोः सम्बन्धः सन्निकर्षः। स च सन्निकोऽचेतनो विद्यते । प्रचेतनाच्च सुखावाप्तिः दुःखविनाशो वा न जायते, अतः सज्ञिकर्ष: प्रमाणं नो भवेत् । परन्तु ज्ञानात्सुखावाप्तिः दुखविनाशो वा जायते, तो ज्ञानमेव प्रमाणम् । यतः सुखावाप्तौ दुःसविनाशे का यत् समयं तदेव प्रमाणं प्रोक्तम् ।। प्रस्यानुमानप्रयोगश्चेत्यम्-प्रमाणं ज्ञानमेवेति प्रतिज्ञा, हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थत्वादिति हेतुः, हिताहितप्राप्तिपरिहारसमयं हि ज्ञानं, नान्यत्, यदा घाटादयः इत्युदाहरणम् । तथा चेदमित्युपनयः । तस्मात्तयेति निगमनम् ॥२॥ विशेषार्थ:-इन्द्रिय और पदार्थों का सम्बन्ध सन्निकर्ष कहलाता है । वह सन्निकर्ष अचेतन होता है और अचेतन (जड़) से सुख की प्राप्ति तथा दुःख का परिहार होता नहीं। इस कारण सन्निकर्ष प्रमाण नहीं हो सकता । परन्तु ज्ञान से सुख की प्राप्ति और दुःख का परिहार होता है, इसलिये ज्ञान प्रमाण है। 'प्रकर्षण मीयतेऽनेन' इति प्रमाणम् । अर्थात् पो संशय, पिपर्थय
SR No.009944
Book TitlePariksha Mukha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandiswami, Mohanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages136
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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