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________________ श्री जिनाय नम: কামৰৰ গীলালিন্দ্ৰিবিভিন্ন परीक्षामुख सटीक प्रथमः परिच्छेदः ग्रन्थ कार की प्रतिज्ञा और उद्देश्य प्रमाणादर्थसंसिद्धि - स्तदाभासाद्विपर्ययः । इति वक्ष्ये तयो लक्षमा, सिद्धमल्पं लघीयसः ॥१॥ अर्थ-प्रमाण ( सच्चे ज्ञान ) से पदार्थों का निर्णय होता है और प्रमाणाभास (झूठेज्ञान ) से पदार्थों का निर्णय नहीं होता । इसलिये मन्दबुद्धि वाले बालकों के हितार्थ उन दोनों के संक्षिप्त और पूर्वाचार्यप्रसिद्ध लक्षण कहता हूँ ! संस्कृतार्थ-प्रमाणात् (सम्यग्ज्ञानात्) पदार्थानां निर्णयः, प्रमाणाभासात् (मिथ्याज्ञानात्) पदार्थानामनिर्णयश्च जायते । अतो मन्दमतीनां बालकानां प्रबोधाय तयोः प्रमाणप्रमाण भासयोः संक्षिप्त पूर्वाचार्यप्रसिद्धम्वा लक्षणमहं ग्रन्थकारो वक्ष्ये । विशेषार्थ-मा-अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग लक्ष्मी । प्राण-शब्द अर्थात् दिव्यध्वनि । प्र-उत्कृष्ट । मा च प्राणश्च माणी, प्रकृष्टौ माणो यस्य सः प्रमाणः । उत्कृष्टलक्ष्मी और उत्कृष्टवाणी सहित व्यक्ति अरिहन्त भगवान् ही हैं । क्योंकि अनन्तचतुष्टय रूप अन्तरङ्ग और समवसरणादिरूप बहिरङ्ग लक्ष्मी अन्य हरिहरादिक के सम्भव नहीं । तया प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण से निर्बाध दिव्यध्वनि भी अन्य के सम्भव नहीं। इस प्रकार यहाँ, प्रमाण शब्द का अर्थ 'परिहन्त' हुअा। उनके असाधारण गुण दिखाना ( २१ )
SR No.009944
Book TitlePariksha Mukha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandiswami, Mohanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages136
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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