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________________ জাজাঙ্খল এই ফুল .. सत्त्व और असत्त्व इन दो धर्मों में से सत्त्वमुखेन वस्तु का प्रतिपादन करना प्रमाणवचन का पहला रूप है। असत्त्वमुखेन वस्तु का प्रतिपादन करना प्रमाणवचनका दूसरा रूप है। सत्त्व व असत्त्व उभयधर्ममुखेन क्रमशः वस्तु का प्रतिपादन करना प्रमाणवचन का तीसरा रूप है। सत्त्व और असत्त्व उभयधर्ममुखेन युगपत् (एकसाथ) वस्तुका प्रतिपादन करना असम्भव है, इसलिये प्रवक्तव्य नाम का चौथारूप प्रमाणवचनका निष्पन्न होता है । उभयधर्ममुखेन युगपत् वस्तु के प्रतिपादन की असम्भवता के साथ-साथ सत्त्वमुखेन वस्तु का प्रतिपादन हो सकता है इस तरह से प्रमाणवचन का पांचवां रूप निष्पन्न होता है। इसीप्रकार उभअधर्ममुखेन युगपत् वस्तु के प्रतिपादन की असम्भवता के साथ-साथ प्रसत्त्वमुखेन भी वस्तु का प्रतिपादन हो सकता है इस तरह से प्रमाणपपन का उठा रूप बन जाता है। और उभयधर्ममुखेन युगपत् वस्तु के प्रतिपादन की असम्भवता के साथ -साथ उभयधर्म मुखेन क्रमशः बस्तुका प्रतिपादन हो सकता है इस तरह से प्रमाणवचन का सातवाँ रूप बन जाता है । जैनदर्शन में इसको 'प्रमाणसप्तमंगी' नाम दिया गया है। नयवचन के सप्तभंग वस्तु के सत्त्व और असत्त्व इन दो धर्मों में से सत्त्वधर्म का प्रतिपादन करना नयवचन का पहला रूप है। असत्त्व धर्म का प्रतिपादन करना नयवचन का दूसरा रूप है। उभय धर्मों का क्रमशः प्रतिपादन करना नयवचन का तीसरा रूप है। और चूंकि उभयधर्मों का युगपत् सप्तभंग के नाम-स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्तिनास्ति, स्वादवक्तव्य, स्यादस्त्यवक्तव्य, स्यान्नास्त्यवक्तव्य, स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्य । ( १३५ )
SR No.009944
Book TitlePariksha Mukha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandiswami, Mohanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages136
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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