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________________ यौनाभिमत सन्निकर्ष के प्रत्यक्षाता का निराकरण नैयायिक और वैशेषिक सन्निकर्ष (इन्द्रिय और पदार्थ का संबंध) को प्रत्यक्ष मानते हैं । पर वह ठीक नहीं है; क्योंकि सन्निकर्षं प्रचेचन है, यह प्रमिति के प्रति करण कैसे हो सकता है ? प्रमिति के प्रति जब करण नहीं, तब प्रमाण कैसे ? और जब प्रमाण ही नहीं, तो प्रत्यक्ष कैसे ? दूसरी बात यह है, कि चक्षु इन्द्रिय 'रूप का' ज्ञान सन्निकर्ष के बिना ही कराता है, क्योंकि वह अत्राप्यकारी है । इसलिये सन्निकर्ष के अभाव में भी प्रत्यक्षज्ञान होने से प्रत्यक्ष में सन्निकर्षरूपता ही नहीं है । चक्षु इन्द्रिय को जो यहाँ प्रत्राप्यकारी कहा गया है वह प्रसिद्ध नहीं है । कारण, प्रत्यक्ष से चक्षु इन्द्रिय में प्रप्राप्यकारिता हो प्रतीत होती है । शंका- यद्यपि चक्षु इन्द्रिय की प्राप्यकारिता ( पदार्थ को प्राप्त करके प्रकाशित करना) प्रत्यक्ष से मालूम नहीं होती तथापि उसे परिमाणु की तरह अनुमान से सिद्ध करेंगे । जिस प्रकार परमाणु प्रत्यक्ष से सिख न होने पर भी 'परमाणु हैं क्योंकि स्कन्धादि कार्य अन्यथा नहीं हो सकते' इस अनुमान से उसकी सिद्धि होती है उसी प्रकार 'चक्षु इन्द्रिय पदार्थ को प्राप्त करके प्रकाश करने वाली है, क्योंकि वह बहिरिन्द्रिय है (बाहर से देखी जाने वाली इन्द्रिय है) जो बहिरिन्द्रिय है यह पदार्थ को प्राप्त करके ही प्रकाश करती है, जैसे स्पर्शन इन्द्रिय' इस प्रभुमान से चक्षु में प्राप्यकारिता की सिद्धि होती है और प्राप्यकारिता ही सनिकर्ष है । अत: चक्षु इन्द्रिय में सन्निकर्ष की अव्याप्ति नहीं है । अर्थात् चक्षु इन्द्रिय भी सन्निकर्ष के होने पर ही रूपशान कराती है। इसलिए सन्निकर्ष को प्रत्यक्ष मानने में कोई दोष नहीं है ? समाधान- - नहीं; ; यह अनुमान सम्यक् अनुमान नहीं है -- अनुमानाभास है । वह इस प्रकार से है ( १२६ )
SR No.009944
Book TitlePariksha Mukha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandiswami, Mohanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages136
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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