SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चतन्त्र यदि आप ऐसा सोचते हों कि वह बड़े शरीर वाला है, इसके द्वारा मैं शत्रुओं का नाश करवाऊँगा, तो यह बात भी उससे होने की नहीं, क्योंकि वह तो घास-खोर है और महाराजा के शत्रु मांस-भोजी हैं। इसलिए इसकी सहायता से शत्रु पर विजय भी नहीं पाई जा सकती। इसे अब दोषी बनाकर मार डालिए।" पिंगलक ने कहा "पहले सभा में जिसके बारे में यह गुणवान है' ऐसी प्रशंसा की हो, उसका दोष अपनी प्रतिज्ञा-भंग से डरने वाला मनुष्य नहीं कहता। फिर मैंने तेरी बात मानकर उसे अभयदान दिया है, फिर स्वयं मैं ही उसे किस तरह मारूँ ? संजीवक मेरा पूरा मित्र है और उसके प्रति मेरा कोई रोष नहीं है। कहा है कि "अगर मुझसे दैत्य ने भी सम्पत्ति प्राप्त की हो तो मेरे द्वारा वह मारे जाने योग्य नहीं है । विषैले पेड़ का भी पालन करने के बाद उसे अपने हाथ से काट डालना ठीक नहीं है। "पहले तो धन चाहने वालों के प्रति कृपा नहीं करनी चाहिए, पर ऐसा करने पर तो हरदम उनकी परवरिश करनी चाहिए। "एक बार ऊंचे चढ़ाकर फिर नीचे गिराने वाली वस्तु मनुष्य के लिए लज्जाजनक होती है, पर जमीन पर रहने वालों को तो गिरने का भय ही नहीं है। "उपकारियों के प्रति जो साधुता दिखलाता है, उसकी साधुता में कौनसा गुण है। अपकारियों के प्रति जो साधु है, भले आदमी उसे ही साधु कहते हैं। फिर संजीवक अगर मेरे प्रति द्रोह-बुद्धि रखता है तो भी उसके विरुद्ध मुझे कुछ न करना चाहिए।" दमनक ने कहा, "दुश्मन को माफ करना, यह धर्म नहीं है। कहा है कि "समान धन बाले, समान बल वाले, मर्म स्थान जानने वाले, उद्योगी तथा आधा राज हरण करने वाले को कोई मारता नहीं, हव
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy