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________________ पञ्चतन्त्र "जो अपने ही बल से उन्नत शत्रु को मारने उत्साह से जाता है, वह बलवान होने पर भी मदरहित होकर, टूटे दांत वाले हाथी की तरह पीछे भागता है।" भासुरक ने कहा, "तुझे इन बातों से क्या काम ? उस किले-बन्द को तू मुझे दिखा।"खरगोश बोला, "अगर ऐसी बात है तो आप मेरे साथ चलिए।" यह कहकर वह आगे हो लिया । बाद में आते समय उसने जो कुंआ देखा था, उसके पास पहुँचकर उसने भासुरक से कहा , “स्वामी ! आपका तेज सहने में कौन समर्थ है ? आपको दूर से ही देखकर वह चोर सिंह अपने किले में घुस गया है। आप आइए तो मैं दिखलाऊँ।" भासुरक ने कहा, “मुझे किला दिखला।" उसने उसे कुंआ दिखला दिया । कुंए के पानी में अपनी परछाईं देखकर मूर्ख सिंह गरजा, जिसकी गूंज से कुंए के बीच से दुगुनी आवाज उठी। उसे अपना शत्रु मानकर स्वयं उसके ऊपर कूदकर उसने अपने प्राण गंवा दिए। ___ इसीलिए मैं कहता हूँ -"जिसकी बुद्धि है उसका बल है । तो जो तू कहे तो मैं वहाँ जाकर अपनी चतुराई से दोनों की मित्रता तोड़ दूं।" करटक ने कहा, “भद्र ! अगर ऐसी बात है तो तू जा। तेरा रास्ता सुख से कटे । तू अपनी इच्छानुसार कर।" ___ बाद में संजीवक से अलग पिंगलक को अकेले में पाकर दमनक उसे प्रणाम करके आगे बैठ गया। पिंगलक ने उससे कहा, "भद्र ! क्यों बहुत दिनों से तू दीख नहीं पड़ा?" दमनक ने कहा, “महाराज को हमारी कोई जरूरत नहीं है, इसीलिए हम नहीं आते । फिर भी राज-काज खराब होते देखकर जलते दिल से व्याकुल होकर मैं स्क्यं यहाँ कहने आया हूँ। कहा भी है-- "जिसकी हार न चाही जाय उससे शुभ या अशुभ, प्रिय • अथवा अप्रिय बात बिना पूछे भी कहनी चाहिए।" उसकी यह मतलब-भरी बात सुनकर पिंगलक ने कहा , “तुझे क्या कहना है ? जो कहना हो कह।" दमनक ने कहा, "देव! संजीवक आपसे
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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