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________________ पञ्चतन्त्र तो आप मेरे पिता से मुझे माँगें । वे विधिपूर्वक संकल्प के साथ मुझे आपको दे देंगे।" बुनकर ने कहा, “सुभगे ! मैं मनुष्यों की आँखों के रास्ते तक नहीं जाता फिर उनसे बात करने की तो बात ही क्या है ? इसलिए तू गांधर्वविधि से अपने को मुझे समर्पण कर, नहीं तो शाप देकर वंशसहित तेरे पिता को मैं भस्म कर दूंगा।" यह कहकर गड़ के ऊपर से नीचे उतरकर वह दोनों हाथ से उसका हाथ पकड़कर उस भयभीत लजीली और काँपती हुई कन्या को शय्या के पास लाया। इसके बाद बाकी रात में वात्स्यायन की कही हुई विधि के अनुसार उसका उपभोग करके दिन फटते फटते बिना किसी के जाने वह वहाँ से चला गया। इस प्रकार नित्य राज-कन्या का सेवन करते हुए उसका समय बीतने लगा। ___एक समय कंचुकियों ने राज-कन्या के मूंगे के समान ओंठों को कटा हुआ देखकर एकांत में कहा , “अरे, देखो तो इस राजकन्या के शरीर के अंग पुरुष द्वारा भोगे जाते-जैसे दीख पड़ते हैं। इस सुरक्षित भवन में इस प्रकार की घटना कैसे घटी होगी। इसलिए हमें राजा को इसकी खबर दे देनी चाहिए।" इस प्रकार निश्चय करके सब एक-साथ होकर राजा से कहने लगे, “देव, हम नहीं जानते परन्तु राजकुमारी के सुरक्षित महल में कोई आदमी आता है, इस बात में आपकी आज्ञा ही प्रमाण है।" यह सुनकर अत्यन्त व्याकुल चित्त होकर राजा सोचने लगा; "पुत्री पैदा हुई है इसी की बड़ी चिंता है। उसे किसे दिया जाय इसमें बड़ी बहस उठती है । दिए जाने पर उसे सुख मिलेगा या नहीं, यह भी नहीं जाना जाता। कष्ट का नाम ही कन्या का पिता होना है । "नदियों और स्त्रियों में कूल (किनारा) और कुल समान होते हैं। नदियाँ पानी से किनारे गिरा देती हैं और स्त्रियाँ अपने दोषों से कुल को गिरा देती हैं। और भी "पैदा होते ही वह माता का मन हर लेती है , सम्बन्धी
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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