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________________ मित्र-भेद ४७ नाई ने भी उत्सुकता से केवल एक छुरा देख कर गुस्से से उसकी ओर वह छुरा फेंका । इसके बाद वह दुष्टा हाथ उठाए हुए रोती चिल्लाती घर से बाहर निकल आई । 'अरे देखो, इस पापी ने मेरीऐसी सतवंती की नाक काट डाली । इससे मेरी रक्षा करो, रक्षा करो।' इसके बाद राज-पुरुषों ने आकर उस नाई को डंडों से पीटा और मजबूती से बाँधकर उस नकटी के साथ धर्माधिकरणस्थान ( अदालत) में ले जाकर न्यायाधीशों से कहा, "हे सभासद ! सुनिए, इस नाई ने बिना कसूर अपनी स्त्री का अंगच्छेद कर दिया है । इस बारे में जो ठीक हो वह कीजिए ।" ऐसा कहने पर न्यायधीशों ने कहा, "अरे नाई, किसलिए तूने अपनी स्त्री का अंग-भंग कर दिया ? क्या वह पर-पुरुष को चाहती थी, अथवा वह किसी को जानती थी अथवा चोरी की थी, उसका अपराध कहो ।" नाई मार खाने के भय से बोल न सका । उसे चुप रहते देखकर न्यायाधीशों ने पुनः कहा, "इन राज-पुरुषों . की बात ठीक है, यह पापी है, जिसने इस बेचारी स्त्री को दूषित किया है । कहा भी है ― "पाप कर्म के बाद मनुष्य अपने कर्म से ही डर जाता है, उसके मुख का रंग और आवाज बदल जाती है, दृष्टि शंकित हो जाती है और तेज उड़ जाता है । और भी " जिसके मुंह का रंग फीका पड़ गया है, ललाट पर पसीना आ गया है, ऐसा आदमी डगमगाता हुआ अदालत में आता है और भर्राई हुई आवाज में बोलता है । पाप करके अदालत में आया मनुष्य आँखें नीची करके बोलता है, इसलिए चतुर पुरुषों What नपूर्वक इन चिन्हों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । और भी "निर्दोष मनुष्य प्रसन्न वदन, खुश, साफ बोलने वाला, गुस्से से भरी
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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