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________________ अपरीक्षितकारक. २९७ आज्ञा से वह भी दोनों हाथों से केकड़े को लेकर कपूर की पेटी में उसे रखकर जल्दी से चल पड़ा। जाते जाते गरमी से व्याकुल होकर रास्ते में लगे किसी पेड़ के नीचे जाकर वह सो गया। उसी बीच में पेड़ के खोखले से निकल कर कोई सांप उसके पास आ पहुंचा । कपूर की सुगंध प्रिय होने से ब्राह्मण को अकेला छोड़कर उसने थैली चीर डाली और उसके अन्दर रखी हुई कपूर की पेटी को लालच से खा गया । उस केकड़े ने पेटी के अन्दर रहते हुए भी सर्प को मार डाला । ब्राह्मण ने जागकर देखा तो अपने पास कपूर की पेटी पर मरा हुआ काला सांप था । उसे देखकर उसने सोचा, 'इस सांप को केकड़े ने मारा है।' इस तरह प्रसन्न होकर वह बोला, “अरे! मेरी माता ने ठीक ही कहा था कि आदमी को कोई मददगार बनाना चाहिए, अकेले नहीं जाना चाहिए। मैंने श्रद्धापूर्वक मन से माता की बात मानी, इसलिए इस केकड़े ने सांप से मेरी जान बचाई। अथवा ठीक ही कहा है कि "क्षीण चन्द्रमा चमकते हुए सूर्य का आश्रय ग्रहण करता है। पूर्ण होने पर वह बादलों को बढ़ाता है। विपत्ति में दूसरे ही सहायक होते हैं और धनिकों का धन दूसरे ही उपभोग करते हैं। "मंत्री, वीर, ब्राह्मण, देव, ज्योतिषी, वैद्य और गुरु में जिसकी जैसी भावना होती है, उसे वैसी ही सिद्धि होती है।" यह कहकर ब्राह्मण अपने इच्छित स्थान को चला गया। इसलिए मैं कहता हूं कि "रास्ते में डरपोक का साथ भी कल्याणकारी होता है। साथ में रहे केकड़े ने ब्राह्मण की जान बचाई थी।" यह सुनकर सूवर्णसिद्धि चक्रधर की आज्ञा लेकर अपने घर चला गया।
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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