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________________ २८२ पञ्चतन्त्र सुख का कारण न हो तो उसे अपना पुत्र भी प्यारा नहीं होता।" बुनकर ने कहा, "फिर भी मुझे उससे पूछना चाहिए,वह पतिव्रता है और बिना उससे पूछे मैं कुछ नहीं करता।" यह कहकर जल्दी से जाकर उसने अपनी स्त्री से कहा, "प्रिये ! आज मुझे एक देवता सिद्ध हो गया है, वह मनमाना वर देता है । मैं तुझसे पूछता हूं कि उससे क्या वर माँगूं। मेरे मित्र नाई ने कहा है कि मैं उससे राज्य माँगू।" उसने कहा, “नाई की क्या बुद्धि ? उसकी बात मानकर तू काम न कर, कहा भी है-- "बुद्धिमान चारण, बंदी , नाई, बालक और भिक्षुओं के साथ बुद्धिमानों को सलाह नहीं करनी चाहिए। अथवा और राज्य की व्यवस्था यह बड़ी दुखदायिनी है। संधि, विग्रह, यान, वयोकि आसन, संशय और द्वैधीभाव कारणों से वह आदमी को कभी सुख से रहने नहीं देती । क्योंकि "जैसे ही राज्याभिषेक होता है वैसे ही बुद्धि दुःखों में लग जाती है। राजाओं के अभिषेक के समय घड़े जल के साथ ही मानो आपत्ति गिराते हैं। और भी "राज्य के लिए राम का वन-गमन, पांडवों का बनवास, यादवों की मृत्यु, राजा नल का राज्य छोड़ना, सौदास की ऐसी अवस्था (मनुष्य भक्षक की तरह दशा), सहस्रार्जुन का मारा जाना तथा रावण की हँसाई देखकर राज्य की इच्छा नहीं करना चाहिए। "जिस राज्य के लिए भाई, पुत्र तथा उसके सम्बंधी भी राजा को मारना चाहते हैं ऐसे राज्य को दूर से ही छोड़ देना चाहिए।" - बुनकर ने कहा, “तूने ठीक कहा। अब बता कि उससे क्या मांगू ?" उसने कहा, "तू हर दिन एक कपड़ा बुनता है,उससे घर का खर्च चलता है। इसलिए तू उससे दो दूसरे हाथ और एक सिर मांग जिससे आगे पीछे दोनों तरफ कपड़ा बुन सके । एक कपड़े से तो पहले की तरह घर का खर्च चलेगा
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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