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________________ २५० पञ्चतन्त्र वह बोली, "देव! मैंने इसके पास से कुछ नहीं लिया है।" ब्राह्मण ने कहा, "मैंने तिबाचा धराकर अपनी जान का आधा तुझे दिया है,वही तू मुझे लौटा दे।" बाद में राजा के डर से तीन बार कहकर 'तेरी जान पीछे लौटाती हूं' ऐसा कहते ही स्त्री की जान निकल गई । पीछे राजा ने चकित होकर कहा, “यह क्या ?" इस पर ब्राह्मण ने उसे अपनी पूरी दास्तान सुनाई। इसलिए मैं कहता हूं कि “जिसके लिए मैंने अपना कुल छोड़ा, अपना आधा जीवन हार गया, वह मुझे छोड़ती है। कौन आदमी स्त्रियों का विश्वास कर सकता है ?" बन्दर ने फिर कहा, “एक बड़ी अच्छी कहानी सुनी जाती है । "स्त्रियों के माँगने पर मनुष्य क्या नहीं देता और क्या नहीं करता? घोड़ा न होने पर भी वह घोड़े जैसा हिनहिनाता है तथा पर्व न होने पर भी सिर मुंडाता है।" मगर ने कहा, “यह कैसे ?" बन्दर कहने लगा-- नन्द और वररुचि की कथा "प्रख्यात बल और पौरुष से युक्त, अनेक राजाओं के मुकुट की किरणों से जिसका पादपीठ रंग जाता था, शरद् ऋतु के चन्द्रमा के समान जिसका यश था , ऐसा समुद्र तक पृथ्वी का स्वामी नन्द नाम का राजा था । सब शास्त्रों और तत्वों को समझने वाला उसका मंत्री वररुचि था। प्यार की लड़ाई में उसकी स्त्री उससे कुपित हो गई। अपनी प्यारी पत्नी को उसने मनाने का बहुत यत्न किया, पर वह खुश न हुई । पति ने कहा, “भद्रे! जिस तरह तू खुश हो वही कह, मैं करूंगा।" इस पर उसने धीरे-धीरे कहा, “यदि तू सिर मुंडाकर मेरे पैरों पर गिरे तो मैं प्रसन्न हो जाऊंगी।" उसके ऐसा करने पर वह प्रसन्न हो गई। नन्द की स्त्री उसी तरह गुस्से होकर उसके मनाने पर भी नहीं मानती थी । राजा ने कहा , 'भद्रे! तेरे बिना मैं क्षण भी जी नहीं सकता। तेरे पैरों पर गिरकर मैं तुझे मनाऊंगा।" उसने कहा, “अगर मैं तेरे में है
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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