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________________ मित्र-भेद हांकने से ही चलते हैं , पर पंडित पुरुष बिना कही बात का मर्म समझ जाते हैं,क्योंकि दूसरे की चेष्टा का ज्ञान ही बुद्धि का फल है। जैसा मनु ने कहा है"आकार, इशारे, गति, चेष्टा, भाषण तथा आँख और मुख के भावों से ही अन्तर्गत मन का अभिप्राय जाना जा सकता है। तो आज इस डरे हुए पिंगलक के पास जाकर उसे अपनी बुद्धि के प्रभाव से निर्भय बनाकर और बस में करके अपने लिए मंत्रिपद की ब्योंत करूंगा।" करटक ने कहा, "तुम सेवा धर्म से अनभिज्ञ हो, फिर कैसे उसे वश में कर सकते हो?" दमनक ने कहा, “पांडव जिस समय विराट नगर में पहुँचे उस समय धौम्य मुनि ने उनसे सेवक का जो धर्म कहा, वह सब मैं जानता हूँ। वह यह है "सोने के फूलों से भरी पृथ्वी को तीन लोग चुनते हैं, शूरवीर, विद्वान और सेवा का मर्म जानने वाले। 'जो सेवा स्वामी के हित की हो उसे ही जान बूझ कर ग्रहण करना चाहिए, और उसी द्वारा विद्वान मनुष्य को राजा का आश्रय ग्रहण करना चाहिए, दूसरे से नहीं। "जो राजा पंडित का गुण न जानता हो उसकी सेवा पंडित को नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जिस तरह अच्छी तरह से जोती हुई ऊसर जमीन से फल नहीं मिलता उसी तरह राजा के पास से भी फल नहीं मिलता। "धन और मंत्रियों से रहित होने पर भी अगर राजा में सेवा लेने योग्य गुण हैं तो उसकी सेवा करनी चाहिए , क्योंकि कालांतर में उससे जीवन का फल मिलता रहता है। .. "ठूठे वृक्ष की तरह अगर पड़ा रहना पड़े और भूख से देह भी सुखाना पड़े तो भी पंडित अनात्म सम्पन्न पुरुष की वृत्ति ग्रहण करना न चाहे। "कंजूस, कम और रूखे शब्द बोलने वाले स्वामी के प्रति सेवक का
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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