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________________ लब्धप्रणाश २३६ "अपने से अपार ताकत वाले दुश्मन के साथ जो मित्रता करता है वह स्वयं ही जहर खाता है इसमें कोई शक नहीं। इसलिए मैं उसे हर रोज अपना एक दोस्त दूंगा। कहा है कि । “सर्वस्व लेने को तैयार शत्रु को, जिस तरह समुद्र बडवानल को सहन करता है, उसी तरह समझदार आदमी थोड़ी सी चीज देकर उसका संतोष कर देता है। उसी प्रकार "जोरावर के मांगने पर जो कमजोर एक दाना भी मन से नहीं देता अथवा दिखाई हुई चीज नहीं देता, बाद में वह अंगुली न दिखाने पर भी उसे आंटे की एक खारी (एक विशेष तरह का नाप) देता है। उसी प्रकार "सब चीजों के समाप्त होने की संभावना आ पड़ने पर चतुर आदमी आधा छोड़ देता है और आधे से अपना काम चलाता है, क्योंकि सर्वनाश उसके लिए दुस्सह हो जाता है। "थोड़े से के लिए बुद्धिमान आदमी बहुत का नाश नहीं करता। थोड़े से बहुत की रक्षा यही पांडित्य है।" इस तरह निश्चय करके वह एक-एक मेढक को सांप के पास जाने का हुक्म देता था। वह भी उन्हें खाकर चुपके-चुपके दूसरों को भी खा जाता था । अथवा ठीक ही कहा है-- "जैसे गंदे कपड़े होने से जहां-तहां भी बैठा जा सकता है, उसी तरह आचार-भूष्ट मनुष्य अपने बचे-खुचे चरित्र की भी रक्षा नहीं करता।" एक दिन वह सर्प दूसरे मेढकों को खाकर गंगदत्त के लड़के यमुनादत्त को भी खा गया। उसे खाया जानकर गंगदत्त जोर-जोर से धिक् धिक् कहकर रोने लगा और रोते हुए किसी तरह रुकता ही न था। इस पर उसकी स्त्री ने कहा
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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