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________________ लब्धप्रणाश २३७ भी नहीं है । इस मृत्युलोक में मेरी किसी दूसरे से दोस्ती भी नहीं है, इसलिए इस किले में मैं तब तक रहूँगा जब तक मुझे यह पता न लगे कि यह कौन है । कहा भी है "बृहस्पति का कहना है कि जिसके शील, कुल और स्थान का पता न हो उसके साथ मित्रता नहीं करनी चाहिए । शायद मंत्र, बाजा अथवा औषधि में चतुर कोई मुझे बुलाकर बंधन में फंसाना चाहता है, अथवा कोई आदमी दुश्मनी साधकर खाने के लिए मुझे पुकारता है ।" उसने कहा, "अरे! तू कौन है ?" उत्तर मिला "मैं गंगदत्त नामक मेढकों का राजा तेरे पास दोस्ती के लिए आया हूँ ।" यह सुनकर साँप ने कहा, “अरे! यह बात वैसी ही झूठी है जैसे तिनकों और आग का साथ । कहा भी है- " जिसका जिससे वध हो वह किसी तरह सपनें में भी उसके पास नहीं आता, फिर तू ऐसा क्यों बकता है ?" गंगदत्त ने कहा, "यह सच्ची बात है। तू हमारा स्वभाव से ही शत्रु है, पर शत्रुओं से हारकर मैं तेरे पास आया हूँ । कहा है कि (6 'जब सर्वनाश उपस्थित हो और प्राणों के लाले पड़ जायँ तब दुश्मन को भी प्रणाम करके जान और धन बचाना चाहिए ।" साँप ने कहा, "तुझे किसने हराया यह कह ।" उसने कहा, “रिश्तेदारों ने । ” सर्प ने कहा, "तेरा डेरा बावली, कुआं, तालाब या झील कहां है, इसका पता बता ।” उसने कहा, “ संगीन कुएं में ।" सर्प ने कहा, " [t 'हम बिना पैर के हैं, इसलिए वहां नहीं घुस सकते । घुसकर भी वहां ऐसी जगह नहीं है जहां ठहरकर मैं तेरे रिश्तेदारों को मार सकूँ । कहा भी है कि “अपना भला चाहने वाले को जो वस्तु निगली जा सके, खाने के बाद जो पच जाय, और पचने के बाद जो फायदा पहुँचाए, उसी चीज को खाना चाहिए।" 1
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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