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________________ लब्धप्रणाश ર मारने की सोचता है ?" मगर बोला, "अरे, उसे अमृतमय रस वाले फलों के स्वाद से मीठे बने तेरे हृदय को खाने की इच्छा हुई है, इसीलिए मैंने ऐसा किया है।" तुरन्त सोचने वाले बन्दर ने कहा, “भद्र! यदि ऐसी बात है तो तूने मुझसे वहीं पर ऐसा क्यों नहीं कहा, क्योंकि मैं अपना हृदय हमेशा जामुन के पेड़ के खोखले में छिपाकर रखता हूं, उसे मैं अपनी भौजाई को दे देता । बिना हृदय वाले मुझको तू यहां किसलिए ले आया है ?" यह सुनकर मगर खुशी से बोला, “अगर ऐसी बात है तो तू अपना हृदय मुझे दे दे, जिससे मैं उसे खिलाकर उस दुष्ट पत्नी का अनशन तोडूं । मैं तुझे उस जामुन के पेड़ के पास पहुँचा दूंगा।" यह कहकर वह जामुन के पेड़ के पास लौट आया। बन्दर, जिसने जान बचाने के लिए अनेक देवताओं की मिन्नतें मानी थीं, तीर पर पहुँच गया, फिर एक लम्बी छलांग से जामुन के पेड़ पर पहुँचकर वह सोचने लगा , “ चलो, प्राण तो बचे अथवा यह ठीक ही कहा है "अविश्वासी का विश्वास नहीं करना चाहिए और विश्वासी का भी विश्वास नहीं करना चाहिए। विश्वास करने से पैदा हुआ भय मूल को भी काट डालता है। आज मेरा पुनर्जन्म का दिन है।" यह सोच ही रहा था कि मगर ने कहा, “मित्र! अपना हृदय दे जिसे खिलाकर मैं तेरी भौजाई का अनशन तोडूं ।" हँसकर झिड़कते हुए बन्दर ने कहा , “अरे मूर्ख दगाबाज, तुम्हें धिक्कार है। क्या कभी किसी के दो हृदय होते हैं ? इसलिए जल्दी भाग, फिर कभी जामुन के पेड़ के नीचे मत आना । कहा भी है - "एक बार दुष्टता करने वाले मित्र के साथ जो फिर मेल करना चाहता है वह गर्भ धारण करके जैसे खच्चरी मरती है, उसी तरह मरता है।" यह सुनकर मगर शरमाकर सोचने लगा,“मुझ मूर्ख ने अपनी तबीयत की बात उसे क्यों बताई ? फिर वह किसी तरह माने तो मैं फिर उसका विश्वासी बनें ।" उसने कहा, "मित्र! मैंने हँसी में तेरा विचार जाना था। तेरे हृदय की उसे कोई जरूरत नहीं है, इसलिए पाहुने की तरह तू मेरे घर चल । तेरी
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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