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________________ २१२ पञ्चतन्त्र बाद में वह पूर्व-परिचित विट के घर जाकर उससे कहने लगी-"मेरा वह दुरात्मा पति गांव के बाहर चला गया है । घर वालों के सो जाने पर तुम मेरे यहां आ जाना।" रथकार भी जंगल में दिन बिताकर संध्या के समय दूसरे दरवाजे से अपने घर में घुसकर खाट के नीचे छिपकर पड़ रहा । इस बीच में देवदत्त भी खाट पर आकर बैठ गया । उसे देखकर गुस्से में भरकर रथकार ने सोचा , “इसे उठाकर मारूं अथवा सोते हुए सीधे-सीधे इन दोनों को मारूं। पहले उसका व्यवहार देखू और इसके साथ उसकी बातचीत सुनूं ।" इस बीच में वह घर का दरवाजा लगाकर खाट पर चढ़ी। उस पर चढ़ते हुए उसका पैर रथकार के देह से छू गया। इस पर उसने सोचा, “अवश्य ही इस दुरात्मा रथकार ने मेरी परीक्षा के लिए यह चाल चली है। अब मैं कैसे भी उसे तिरिया-चरित्र दिखलाऊंगी।" उसके इस तरह सोचते रहने पर देवदत्त उसको छूने के लिए उत्सुक हो गया। उसने हाथ जोड़कर उससे कहा, “महानुभाव ! तुमको मेरा शरीर नहीं छूना चाहिए, क्योंकि मैं पतिव्रता और महासती हूं, नहीं तो शाप देकर मैं तुम्हें जला दूंगी।" उसने उससे कहा, “अगर यही बात है तो तूने मुझे बुलाया क्यों ?" उसने कहा, “मन लगाकर सुन । मैं आज सबेरे देव-दर्शन के लिए देवी के मंदिर गई। वहां अकस्मात् देववाणी हुई, “पुत्री ! मैं क्या करूं? तू मेरी भक्त है । महीने के बाद अभाग्यवश तू विधवा हो जायगी।" इस पर मैंने कहा, “देवी! आप जिस तरह आने वाली मुसीबत जानती हैं उसी तरह उससे बचने का उपाय भी। फिर क्या कोई ऐसा उपाय है जिससे मेरा पति सौ वर्ष जीवे ?" इस पर देवी ने कहा, "हे वत्से! है भी और नहीं भी। वह प्रतिकार तेरे वश में है।" यह सुनकर मैंने कहा, "देवी ! वह मेरे जीवन से भी हो सकता है तो भी कहिए।" देवी ने कहा , “यदि आज दिन तू एक पलंग पर चढ़कर पर-पुरुष का आलिंगन करे तो तेरे पति की अपमृत्यु टल जायगी और वह सौ बरस तक जी सकेगा। तूने मेरी प्रार्थना पूरी की है, फिर जो करना चाहे वह कर। यह निश्चय है कि देवता की बात टल नहीं सकती।" भांपकर भीतर से हँसते हुए उस विट ने समयोचित काम किया। वह मूर्ख
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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