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________________ मित्र-संप्राप्ति १५१ मैं तमाम दुःख-सुखों का अनुभव करके मित्र के साथ तेरे पास आया हूँ मेरे अनमने होने का कारण यही है ।" मंथर ने कहा, "बेशक, यह कौआ तेरा मित्र है, क्योंकि भूख से तड़पते हुए भी यह शत्रु - समान तथा निवाले की तरह तुझे अपनी पीठ पर चढ़ाकर यहां लाया और रास्ते में ही तुझे नहीं खा गया । कहा है कि "जिस कुलीन मित्र का चित्त धन देखकर भी कभी खराब नहीं होता, वह हमेशा मित्र रहता है; उसे ही उत्तम मित्र बनाना चाहिए । विद्वानों ने इन अचूक चिन्हों से मित्रों की परीक्षा करने को कहा है। जैसे पंडित होमाग्नि की परीक्षा करते हैं । "विपत्ति आने पर भी जो मित्रता बनाए रहता है, वही असली मित्र है। बढ़ती में तो दुर्जन भी मित्र हो जाता है । इसीलिए मुझे इस लघुपतनक के बारे में विश्वास है, क्योंकि मांसखोर कौओं की जलचरों के साथ मित्रता नीति के विरुद्ध है । अथवा यह ठीक ही कहा है कि "कोई भी किसी का जानी दुश्मन अथवा जानी दोस्त नहीं है । किसी का किसी वजह से मित्र द्वारा नाश होता है और शत्रु द्वारा उसकी रक्षा होती है, ऐसा देखने में आता है । इसलिए तेरा स्वागत है । अपने घर की तरह तू इस सरोवर के तीर पर रह । तेरे धन का नाश हुआ और तुझे विदेश में रहना पड़ा, इस बात का दुःख न मान । कहा है कि "बादल की छाया, दुर्जन की प्रीति, पका हुआ अन्न, स्त्रियां, जवानी और धन, इन सब का उपयोग थोड़े ही समय के लिए हो सकता है इसीलिए अपने को जीतने वाले बुद्धिमान धन का लालच नहीं करते । कहा भी है कि "अच्छी तरह से संचित किया हुआ, जान की तरह रक्षा किया गया तथा अपने ऊपर भी कभी खर्च नहीं किया गया, ऐसे
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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