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________________ ?पू मित्र-संप्राप्ति गाल का में भी यत्न से आगे खड़ा हो तो कोई उसे देखता नहीं । इस प्रकार रोते- कलपते मैं अपने धन को परिव्राजक तकिया देखकर भग्नोत्साह होकर सबेरे अपने किले में आया । मेरे सेवक इधर-उधर जाते हुए आपस में कानाफूसी करते थे, “अरे, यह हम सब का पेट भरने में असमर्थ है । इसके पीछे जाने से बिल्ली आदि की आफत आती है । फिर इसकी सेवा करने से क्या लाभ ? कहा है कि “जिससे फायदा न मिले, केवल विपत्तियां हीं उठ खड़ी हों उस स्वामी को, सेवकों को विशेष कर, दूर से ही छोड़ देना चाहिए ।" इस प्रकार उनकी बातें सुनता हुआ मैं अपने किले में घुसा। बाद में जब कोई सेवक मेरे पास नहीं आया तो मैं सोचने लगा, "इस दरिद्रता को धिक्कार है । अथवा ठीक ही कहा है "गरीब आदमी मरा हुआ है, बिना संतान के मैथुन मरा हुआ है. बिना श्रोत्रिय ब्राह्मण के श्राद्ध मरा हुआ है और बिना दक्षिणा के यज्ञ मरा हुआ है।” मैं इसी तरह सोच रहा था कि मेरे सेवक, मेरे शत्रु के सेवक हो. गए। वे मुझे अकेले देखकर मेरा तिरस्कार करने लगे । बाद में आधी नींद में पड़ा हुआ मैं फिर सोचने लगा, "उस कुतपस्वी के वास स्थान में जाकर उसके गाल का तकिया बनी हुई धन की पेटी को उसके सो जाने पर मैं अपने दुर्ग में लाऊं, जिससे फिर एक बार उस धन के प्रभाव से मेरा पहले की तरह दबदबा हो जाय । कहा है किं " निर्धन मनुष्य कुलीन विधवा की तरह सैकड़ों मनोरथों से अपने मन को दुखी करता है, पर अनुष्ठान ( धार्मिक कृत्य अथवा प्रयत्न ) नहीं करता । "गरीबी देहधारियों के लिए वह अत्यन्त अपमानकारी दुःख हैं, जिससे उसके रिश्तेदार भी उसे जीते हुए मरा मानते हैं । दरिद्रता से कलुषित हुआ मनुष्य, दीनता का पात्र, पराभव का
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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