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________________ मित्र-भेद को लगती है उतनी सेवक को नहीं। इसलिए तू चल, जिससे समुद्र के पास से अंडे लेकर टिटिहरे को हम संतोष दें और इसके बाद स्वर्ग चलें।" ऐसी बात पक्की हो जाने पर भगवान समुद्र को भला-बुरा कह , उसके सामने आग्नेयास्त्र साधकर बोले, ''अरे दुरात्मा ! टिटिहरे के अंडे दे, नहीं तो तुझे अभी सुखा देता हूँ।" इससे भय खाकर समुद्र ने टिटिहरे के अंडे लौटा दिये। टिटिहरे ने उन्हें अपनी पत्नी को दे दिये। __इसलिए मैं कहता हूँ कि 'शत्रु का बल जाने बिना जो शत्रुता करता है वह जैसे समुद्र टिटिहरी से हार गया , उसी प्रकार हार जाता है।' ___ इसलिए पुरुष को उद्यम नहीं छोड़ना चाहिए।" यह सुनकर संजीवक दमनक से फिर पूछने लगा, "अरे मित्र , यह कैसे जाना जाय कि पिंगलक की मेरी ओर से बुरी नीयत है। इतने समय तक तो वह मेरी ओर बराबर प्रेम और कृपा की दृष्टि से देखता रहा इससे मैंने कभी भी उसकी बुरी नीयत नहीं देखी। तो तू बत्तला जिससे मैं अपनी रक्षा के लिए उसको मारने की तदवीर सोचूं । दमनक ने कहा, "मित्र,उसमें जानने की क्या बात है? फिर भी तेरे संतोष के लिए कहता हूँ। तुझे देखकर अगर वह लाल आँखें करके और भौंहें चढ़ाकर ओंठ के इधर-उधर जीभ लपलपाने लगे तब तू उसे बुरी नीयत का समझना, अन्यथा उसे प्रसन्न मानना । अब तू मुझे आज्ञा दे कि मैं अपनी जगह लौट जाऊँ । ढकी बात खुल न जाय, इसकी तुझे कोशिश करनी चाहिए। अगर सांझ तक चला जा सके तो देश छोड़ दे, क्योंकि "कुल के लिए एक को छोड़ देना चाहिए। गांव के लिए कुल को ' छोड़ देना चाहिए। जनपद के लिए ग्राम को छोड़ देना चाहिए। __ अपने लिए दुनिया को छोड़ देना चाहिए। "आपत्ति काल के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए। धन से स्त्री की रक्षा करनी चाहिए और स्त्रियों से तथा धन से अपनी रक्षा करनी चाहिए। .. बलवान से नीचा देखने वाले पुरुष को या तो देश से बाहर चले
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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