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________________ ५. सम्यक् मिथ्या ज्ञान ५८. २. संशयादि व उसका कारण अखड चित्रण का अभाव । आता नहीं। अन्धकार में हाथ मारनेवंत् या अन्धो के तीर चलानेवत् कुछ कर भले रहा हूं पर कुछ पता चलता नहीं कि क्या कर रहा हूँ । जो शब्द सुने व पढे बस उनको दोहरा मात्र रहा हूं, उनके भावो का मुझे कुछ पता नहीं।" इस प्रकार का भाव जहा न पाया जाये । इन तीनो वातो से रहित स्पष्ट, नि.सशय, दृढ व प्रत्यक्ष वत् दीखने वाले वस्तु के चित्रण को सम्यक्ज्ञान कहते है। तथा इन तीनो बातो सहित ज्ञान को मिथ्याज्ञान कहते हैं। अब विचार करना यह है कि यह तीनों बाते कहा और क्यो उत्पन्न होती है। जैसे कि कल वाले दृष्टात पर से स्पष्ट करने में आया था, जहा अखडित चित्रण का ज्ञान नही होता वहा ही वास्तव में उसके धारा रूप चित्रण का ज्ञान भी नही हो सकता। क्योंकि देखने पर वह धारा रूप चित्रण केवल धागे पर आगे पीछे पडे कुछ काले धब्बो के अतिरिक्त कुछ भी न भासेगा और इसलिये भले ही मेरे कहने पर आप यह स्वीकार कर ले कि ठीक है, इस धागे पर चन्द्रमा का चित्र है, पर वास्तव में यह बात आपके हृदय पर पर स्पष्ट नहीं हो पायेगी। यह केवल शाब्दिक स्वीकार होगा , हार्दिक नही। हार्दिक स्वीकार तो तभी हो सकता है जब कि आप अपने ज्ञान पट पर अनुमान के आधार पर उस धागे को कदाचित तान कर उस पर पड़े उन धब्बों को एक अखड चन्द्रमा के चित्र रूप से देख पाये । इसलिये स्पष्ट है कि अखडित चित्रण के अभाव में उसं चित्रण के वे धारा रूप खंड आपके हृदय मे यह तीनों बाते अवश्य उत्पन्न कर देगे। या तो आप विचारने लगेगे कि न मालूम इस धागे पर यह काले दाग डाल कर क्यों इसे गन्दी कर दिया गया और यही आपका अनध्यवसाय कहलायेगा । या आप विचारेगे कि इस पर चन्द्रमा का चित्र बताया जा रहा है परन्तु है या नही कौन जाने--और यही आपका संशय कहलाये। या आप विचारेंगे कि अरे मुझे धोका देने के लिये ही , मेरी परीक्षा लेने के लिये ही या मेरी हंसी उडाने के लिये ही यह मुझ को इस धागे पर चन्द्रमा के चित्र का
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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