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________________ २०. विशुद्ध अध्यात्म नय ७११ ६. असद्भूत व्यवहार नय का सामान्य अशुद्ध पर्याये विभाविक भाव है । यहा जीव की प्रमुखता से ही कथन करने मे आयेगा । तहां पुद्गल पर यथा योग्य रूप से स्वय लागु कर लेना। ___ पहिली अध्यात्म पद्धति के अन्तर्गत भी असद्भुत व्यवहार नय का कथन आ चुका है । अन्य पदार्थ का अन्य पदार्थ के साथ निमित्त नैमित्तिक भावो या कर्ता कर्मादि भावो का उपचार करना वहा इस नय का लक्षण बताया गया है। यहाँ भी वही लक्षण समझना । अन्तर केवल स्व व पर पदार्थों की व्याख्या मे है । वहा स्व व पर पदार्थ द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि का विषय था और यहा उसी का विचार पर्यायार्थिक दृष्टि से किया जाता है । अर्थात वहां तो भिन्न जातीय गुणों से तन्मय द्रव्य 'पर पदार्थ' का वाच्य था और यहा भिन्न जातीय पर्याय से तन्मय द्रव्य ‘पर पदार्थ' का वाच्य है। वहा पर पदार्थ का अर्थ था शरीर व घट पट आदि पदार्थ, और यहा पर पदार्थ का अर्थ क्रोधादि विभाविक भाव क्योकि ये ज्ञान का जो वास्तविक कार्य ज्ञाता दृष्टा पना है, उससे भिन्न जाति के है। इस बात का खुलासा पहले ही इस पद्धति का परिचय देते समय किया जा चुका है। जिस प्रकार वहाँ 'घट' 'पट' आदि पर पदार्थो का स्वामी या कत्ता आदि जीव को कहना असदभत व्यवहार नय का लक्षण था, उसी प्रकार यहा भी क्रोधादि विभाव भावों रूप पर पर्यायों का स्वामी व कत्ता आदि जीव को कहना असदभत व्यवहार नय का लक्षण है। इसी की पुष्टि व अभ्यास के अर्थ कुछ उद्धरण देखिये। १ प. घ ।पू । ५२६-५३० "अपि चाऽसद्भुतादि व्यवहारान्तो नयचभवति यथा । अन्य द्रव्यस्य गुणा सजायन्ते बलात्तदन्यत्र ।५२९ । स यथा वर्णादिसतो मुर्तद्रव्स्य कर्म किल मुर्त्तम् । तत्सयोगप्वादिह मूर्ता क्रोधादयोऽपि जीव भावा । ५३०।"
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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