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________________ अध्यात्म नय अध्यात्म २०. विशुध्द अध्यात्म नय ६६५ १ विशुध्द अध्यात्म परिचय सकते । जीव में रागद्वेषादि रूप परिणमने की शक्ति है और पुद्रगल में स्कन्ध रूप परिणमने की । इन दोनों द्रव्यों में इस प्रकार से परिणमने की शक्ति का नाम वैभाविक शाक्ति है। इसके कारण ही ये दोनों द्रव्य शेष चार द्रव्यों की अपेक्ष कुछ विचित्रता रखते हैं वास्तव में यही शक्ति इस लोक के मूल पसारे का कारण है । यदि यह न होती तो सब ही द्रव्य अपनी स्वभाविक अवस्था में रहते । पुदगल भी इन्द्रियों का विषय न बना होता । सब अदृष्ट रहते । इसी प्रकार जीव भी बन्ध को प्राप्त न हुआ होता । अतः संसार व मोक्ष न होता। इस शक्ति विशेष के कारण जीव व पूद्रगल दोनों द्रव्यों में दो प्रकार के क्षणिक भाव या पर्याय देखने को मिलती है-स्वभाव पर्याय व विभाव पर्याय । अकेला परमाणु व उसके स्पर्शादि गुण पुद्रगल के स्वभाव भाव है और स्कन्ध व उसके स्पर्शादि गुण विभाव भाव है। सिद्ध भगवान व उसके केवल ज्ञानादि गुण जीव के स्वभाव भाव है और संसारी जीव व उसके क्रोधादि गुण विभाव भाव है । 'स्वभाव भाव' निज भाव या स्वभाव कहलाते है और 'विभाव भाव' पर भाव कहलाते है। इस प्रकार एक ही द्रव्य के अपने भावो मे स्व व पर का विभाजन इस सूक्ष्म ष्टि का कार्य है। इन स्व व पर भावो के कारण उनसे तन्मय द्रव्य में भी किञ्चित विजातीयता का आभास होने लगता है । यहां पुदगल को छोड कर जीव द्रव्य मे ही उस विजातीयता की सिद्धि करते है। पुदगल मे यथा योग्य स्वयं लगा लेना । जीव द्रव्य एक विचित्र पदार्थ है क्योंकि स्व व पर दोनों को जानने में समर्थ है । जानना मात्र ही हुआ होता तो कोई हर्ज न होता । यहा जानने के साथ साथ कुछ और भाव भी पैदा होता है। स्व को जानते हुए तो इसे स्व व पर दोनों ही दिखाई देते है, किन्तु पर को जानते हुए इसे स्व दिखाई
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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