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________________ २०. विशुध्द अध्यात्म नय १.विशुद अध्यात्म परिचय की आवश्यकता है । चंचल दृष्टि मे उसका प्रवेश नही, क्योकि प्रसग आने पर वह दृष्टि अपने लक्ष्य से बहक जाती है । 'ज्ञान' से तन्मय होने के कारण आत्मा का काम जानने के अतिरिक्त और कुछ नहीं' इस बात को स्वीकार कर लेने पर भी,'घट बनाना कुम्हार का काम नहीं' जव ऐसा समझाने का अवसर आता है तो तुरन्त वह दृष्टि अपने पूर्व के लक्ष्य पर से वहक कर इस चिन्ता मे पड़ जाती है कि 'कुम्हार के बनाये विना घट कैसे बना ।' अर्जुन को लक्ष्य साधते समय जिस प्रकार कौवे की आख के अतिरिक्त और कुछ दिखाई न देता था, भले ही वहां वृक्षादि अनेको पदार्थ पड़े हो, इसी प्रकार पदार्थ का लक्ष्य साधते हुए तुम्हे भी उसके पारिणामिक भाव के अतिरिक्त कुछ भी अन्य दिखाई न देना चाहिये, भले ही वहा निमित्त नैमित्तिक अनेको संयोग पड़े हो । ऐसे स्थिर लक्ष्य मे निमित्त नैमित्तिक भाव भी अभेद द्रव्य के अपने अन्दर ही देखा जाता है, जैसे कि समयसार की १०० वी गाथा मे बताया गया है कि 'ज्ञानी या अज्ञानी कोई भी घट बना नही सकता । उपादान रूप से तो नही पर निमित्त रूप से भी नही बना सकत्ता । अज्ञानी निमित्त रूप से यदि कुछ कर सकता है तो केवल घट बनाने का विकल्प कर सकता है, इसके आगे कुछ नही।' अत इस सूक्ष्म दृष्टि' को समझने के लिये अब लक्ष्य को स्थिर कीजिये। लोक मे छः द्रव्य है । इन में से धर्म, अधर्म, आकाश व काल ये. चार तो त्रिकाली शद्ध है, परन्तु जीव व पुद्रगल किसी विशेष शक्ति से युक्त है, जिसके कारण यह अपने स्वभाव के अनुरूप भी कार्य कर सकते है और इसके विपरीत किसी भिन्न जाति रूप भी। इस शक्ति . को आगम भाषा में 'वैभिाविक शक्ति' नाम से कहा गया है । यहा 'वैभाविक शाक्ति' इस शब्द का अर्थ पर्याय न समझ लेना । क्योकि शक्ति त्रिकाली भाव को कहते है । त्रिकाली भाव दो प्रकार के होते हैं-गुण रूप शक्ति रूप । गुण
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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