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________________ १६. व्यवहार नय ६८५ १३. अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय अर्थ-अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय से द्वयणक आदि स्कन्ध मे सश्लेष सम्बन्ध रूप से स्थित पुद्गल परमाणु वत् तथा परम औदारिक शरीर मे स्थित वीतराग सर्वज्ञवत, यह आत्मा किसी एक विवक्षित देह मे स्थित २. वृ. द्र. स । टी। ८ । २१ "अनुपचरिताऽसद्भुत व्यवहारेण ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मणामादि-शब्देनौदारिक वैक्रियकाहारक शरीरत्रयाहारादिषा पर्याप्तिऽ-योग्य पुदगल पिण्डरूपनोकर्मणां ...कर्ता भवाति ।" (प. का. । ता. वृ. । २७ । ६०) अर्थ-अनुपचरित असद्भुत व्यवहार से ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मो का तथा आदि शब्द से ग्रहण किये गये औदारिक वैक्रियक व आहारक इन तीन शरीरों के आहारदि रूप षट् पर्याप्ति के योग्य पुद्गल पिन्ड, वही है नो कर्म, उन सब का जिव कर्ता है । ३. नि. सा. । ता. वृ । १८ आसन्नगतानुपचारितासद्भूतव्यहार नयाद् द्रव्यकर्मणाँ कर्ता तत्फलरुपाणा सुखदु खाना भोक्ता च । ....नोकर्मणां कर्ता (भोक्ता च ) ।" (अर्थ -आसन्न गत अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय से जीव द्रव्य कर्मों का कर्ता तथा उसके फल रुप सुख दु.खों का भोक्ता है । तथा नो कर्मों का भी कर्ता व भोक्ता है।) ४ प प्र. ।टी..।७।१४।६ "अनुपचरितासद्भूतव्यवहार सम्बन्धः द्रव्यकर्मनोकर्मरहितं (जीवः)।"
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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