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________________ १६. व्यवहार नय ६७१ ८. शुद्ध सद्भूत. व्यवहार नय गुणगुणीविभागेकेलक्षण कथनम् शुद्धसद्भूतव्यवहारोपनयः ।” (अर्थ:--संज्ञा लक्षण व प्रयोजनादि के द्वारा भेद करके शुद्ध द्रव्य मे गुण व गुणी का विभाग रूप एक लक्षण कहना -शुद्धसद्भूत व्यवहार वाला उपनय है। यह कथन भी क्षायिक भाव की अपेक्षा जानना ।) ५. वृ. न. च. । २२० "गुणगुणीपर्यायद्रव्य कारक सद्भावताश्च ., द्रव्येषु ततो ज्ञात्वा भेद क्रियते सद्भूतशुद्धिकरः।” (अर्थः-गुण व गुणी, पर्याय व पर्यायी, तथा कारक भावे .. - इतनी बातों को द्रव्यो में जानकर शुद्धसद्भूत उनमें . भेद करता है। प्र. सा. । ता. वृ. । परि. ''शुद्धसद्भूतव्यवहारनयेन शुद्धस्पर्शरस गन्धवर्णानामाधारभूत पुद्गलपरमाणु वत्केवलज्ञानादि शुद्धगुणानामाधारभूतं (आत्मा) " । (अर्थ --शुद्ध सद्भूत व्यवहार नय से शुद्ध स्पर्श रस तथा वर्णादि गुणोंके आधार भूत शूद्ध पुदगल परमाणू- वत्, केवल ज्ञानादि शुद्ध' गूणों अर्थात क्षायिक भावों का आधारभूत आत्मा है। नि. सा. । ता. वृ. २८ 'परमाणुपर्यायः पुग्दलस्य शुद्ध पर्यायः परम-. पारिणामिकभावलक्षणः वस्तुगतषट्प्रकारहानिवृद्धिरूपअति सूक्ष्म- अर्थपर्यायालकः सादिसनिधनोऽपि परद्रव्यनिरपक्षेत्वाच्छुध्द सद्भूतव्यवहारनयात्मकः ।"
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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