SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 657
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८. निश्चय नय ६३१ १०. अशुद्ध निश्चय नय का लक्षण - भी उस समय हरी पीली ही दीखती है सो अश द्ध निश्चय दुष्टि से दीखती है, उसी प्रकार कर्मों के सयोग को प्राप्त आत्मा भी वास्तव मे शुद्ध रहते हए भी उस समय रागादि रूप ही दीखता है, सो अश द्ध निश्चय दृष्टि से ही दीखता है। पारिणामिक भाव या स्वभाव ग्राही शद्ध निश्चय दृष्टि में तो स्फटिक या आत्मा अब भी अपने अपने उज्वल व चैतन्य स्वभावरूप ही है । ५ नि. सा । ता व. । १८ "आत्मा हि अशुद्ध निश्चय नयेन सकल मोह राग द्वेषादिभाव कर्मणां कर्ता भोक्ता च ।" अर्थ:-अशुद्ध निश्चय नय से आत्मा सकल मोह रागद्वेषादिभाव __ कर्मो का कर्ता व भोक्ता है। ६ प क्. । ता बु. । २७ । ६०. 'अशुद्ध निश्ययेन क्षयोप शमिकौदयिक भाव प्राणैर्जीवति इति जीवो भवति । कर्म कर्म फलम्रूपया चाशुध्द चेतनया युक्तत्वाच्चेतयिता भवति । मति ज्ञानादिक्षयोपशमिकाश दोपयोगेन युक्तत्वा दुपयोग विशेषता भवति ससार ससारकारण रूपा शुद्ध परिणाम परिणमन समर्थत्वात् प्रभु भाव कर्म रूप रागादि भावानां कर्तृत्वात्कर्ता भवाति । . इन्द्रियजनित सुखदु खानाच भोक्तृत्वाद्भोक्ता भवति ।" अर्थ -अशुद्ध निश्चय से जीव क्षयोप शमिक व औदयिक भाव प्राणो से जीता है इसलिये जीव है । कर्म चेतना व कर्म फल चेतना युक्त होने के कारण चेतयिता है । मति ज्ञानादि क्षयोपमिक अशुद्धोपयोग सेयु क्त होने के कारण उपयोग लक्षण वाला है । ससार
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy