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________________ १८. निश्चय नय ६१३ ६. शुद्ध निश्चव नय का लक्षण लेना कि यहा परम श द्ध से तात्पर्यहै और यदि क्षयिक भाव को दश तेि हुए शुद्ध निश्चय का प्रयोग किया है तो समझ लेना कि केवल शुद्ध निश्चय से तात्पर्य है। ___इन दोनों में से परम शुद्ध निश्चय नय का लक्षण तो वहीहै जो कि शुद्ध द्रव्यार्थिक का है (देखो अध्याय म १६ प्रकरण न . १४), केवल प्रयोजन मे भेद है जो कि आगे बताया जायेगा । परन्तु सामान्य शुद्ध निश्चय नय का लक्षण है क्षायिक भाव से तन्मय रहने वाला उस समय का द्रव्य । अध्यात्म में क्योकि आत्म द्रव्य की मुख्यता रहती है अत लक्षण करते हुए सदा जीव को दृष्टि में रखा जाताहै। यद्यपि पुद्गल पर भी इन नयो को तथा आगे की व्यवहार नयो को लागू किया जा सकता है परन्तु आगमकारो की ऐसी प्रवृत्ति नहीं रही है । आगे आने वाले सर्व ही आगम के उद्धरणो मे आप जीव को ही निश्चय नय' का कि व्यवहार नय का विषय बनाया गया देखेगे । वहा ऐसा भ्रम न कर लेना कि जड पदार्थ इन नयो का विषय ही नही है । अपनी बुद्धि से यथा योग्य उन पर भी लाग किया जा सकता है। सामान्य निश्चय नय की भाति यहा भी गुण व गुणी मे अभेद तो निश्चित रूप से स्वीकारा ही जाना चाहिये, अन्यथा तो यह लक्षण निश्चय का न होकर व्यवहार का हो जायेगा । 'ज्ञान मात्र ही जीव है' व 'ज्ञान वान जीव है' इन दोनो वाक्यो का तात्पर्य एक रहते हुए भी दोनो मे महान अन्तर है । पहला गुण व गुणी का अभेद करके केवल जीव द्रव्य की विशेषता दशा रहा है और दुसरा गुण व गुणी का भेद करके वा दोनो को पृथक पृथक स्वीकार करके एक को दूसरे का स्वामी बता रहा है। अत इन दोनो वाक्यो मे पहिला वाक्य निश्चय नय का है और दूसरा व्यवहार नय का । यहा क्योकि शुद्ध निश्चय नय का लक्षण करना है अत शुद्ध गुण अर्थात त्रिकाली भाव से तन्मय रहने वाला द्रव्य पर्याय अर्यांत क्षायिक भाव
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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