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________________ ८१० १८ निश्चय नय ४ निश्चय नय सामान्य के कारण प्रयोजन प्रकार जो यह स्व भावना रूप अद्वैत स्वभाव है वह ही समस्त नय पक्षो से अतीत केवल अनुभव गम्य निजानन्द रस है । अर्थात साधक को इस प्रथम भूमिका में व्यवहार से हटकर निश्चय का आश्रय करना प्रयोजनीय है। इसका अभ्यास हो जाने पर निज अद्वैत स्वभाव मे खोकर शान्ति रस मे लीन हो जायेगा। २ प० प्र०।मू।७१ "देहस्य दृष्ट्वा जरामरण मामय जीवकार्षी। य अजरामर. ब्रह्मपर: त आत्मान मन्यस्व ।७१।" अर्थः--भो आत्मन् ! तू देह को देख कर जन्म मरण से भय मतकर। क्योकि जो अजर व अमर परम ब्रह्म तत्व यह अन्तर मे प्रकाशमान है वही आत्मा है ऐसा तू मान । अर्थात व्यवहार दृष्टि तो वाह्य की ओर लक्ष्य को ले जाती है, जिस से भय व शोक उत्पन्न होते है । अत साधक को निश्चय दृष्टि के वाच्य इस अन्तर तत्व का आश्रय लेना योग्य है। ३. स० सा० ।।१४ “य परयति आत्मॉन अवद्धमस्पष्टमनन्यक नियत । अविशेप मसयुक्त तं शुद्धनय विजनिहि ।१४।" अर्थ --जो आत्मा को अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष व असंयुक्त देखती है अर्थात समस्त व्यवहारिक भेदो व सयोगो से परे एक नियत अखण्ड रूप से देखता है वही शुद्ध नय जानना चाहिये। भावार्थ--इस प्रकार व्यवहारिक विकल्पो को अपने लिये अनिष्ट समझ कर उन का त्याग कर, तथा निश्चय के वाच्य भूत निज अखण्ड व अद्वैत चैतन्य तत्व पर
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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