SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 605
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७ पर्यायार्थिक नय ५७४ ५. पर्यायार्थिक नय समन्वय दो घण्टे तक देख चुकने के पश्चात् जब उसी द्वार पर पुन. लौट आये तो द्वार से बाहर निकलते हुए आप सन्तुष्ट थे, और कह रहे थे कि यहा तो बड़ी चित्र विचित्र वस्तुओ का संग्रह है, तथा वह सग्रह भी बड़ी सुन्दरता से यथा स्थान सजाया हुआ है। उपरोक्त दृष्टान्त मे एक ही विचित्र गृह को देखने में आपके ज्ञान को तीन परिस्थितियों मे से गुजरना पड़ा । पहिली परिस्थिति द्वार में प्रवेश करते समय की है, दूसरी स्थिति हाल मे घूमते समय की है, और तीसरी स्थिति द्वार से बाहर निकलते समय की है, पहली स्थिति मे विशेषताओं से रहित केवल एक सामान्य का ग्रहण है। “यहां तो बहुत कुछ है" केवल इस प्रकार का एक सामान्य स्वीकार है । यहा स्थिति विशेष गोण और सामान्य प्रकार की है। __ दूसरी स्थिति मे पृथक पृथक एक एक विशेष वस्तु का ग्रहण है, पर सामान्य का स्वीकार मात्र है । अर्थात ऐसा सा प्रतीति में आ रहा है कि यह उस सामान्य का ही एक अग है। ऐसा होता हुए भी यहाँ द्वैत रूप विचारण, (अर्थात इसमे यह है ऐसी विचारणा) का अभाव है जो कुछ उस समय देख रहे हो बस उसी के साथ एकत्व को प्राप्त हो गये हो, उस समय दूसरा कुछ भी जानन का विकल्प नही। यह है सामान्य गौण विशेष मुख्य की स्थिति। तीसरी स्थिति में सामान्य व विशेप दोनो का एक साथ ग्रहण हो रहा है। कुछ और देखने की इच्छा
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy