SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 599
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४. पर्यायर्थिक नय १७. पर्यायार्थिक नय ५ ७३ विशेष के लक्षण अर्थ:- विभाव अनित्य अशुध्द यह पर्यायाथिक नय ऐसा होता है, जैसे कि संसारी जीवों में भी सिध्दों के सदृश ही पर्याय का होना। ससारी जीवों को लक्ष्य बनाकर लक्षण किया जा रहा है, इसलिये विभाव विशे पण लगाया। पर्याय नाही होने के कारण अनित्य तथा पर्यायार्थिक है । तथा शुध्दता व अशुध्दता से निरपेक्ष सामान्य पर्यायपने को ग्रहण करने के कारण शुध्द है। अतः इसका विभाव अनित्य शुध्द पर्यायार्थिक नय ऐसा नाम सार्थक है । यह तो इस नय का कारण है। और शुध्द व अशुध्द दोनो द्रव्यो मे पर्याय के क्षणिकपने की अपेक्षा समानता को दर्शाना इसका प्रयोजन है । ६ विभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय -- जीव या पुद्गल का औदयिक भाव विभाव भाव कहलाता है। वह औदयिक भाव या तो सादि सान्त होता है या अनादि सान्त इस लिये वह अनित्य ही होता है । कर्मोपाधि के निमित्त से ही उत्पन्न होता है इसलिये अशुद्ध कहा जाता है । ऐसी विभाव अनित्य पर्याय को ग्रहण करने वाले नय को विभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायाथिक नय कहते है । चारों गति के जीव तथा पुद्गल स्कन्ध अशुद्ध द्रव्य है । उनकी व्यञ्जन व अर्थ सर्व पर्याय अशुद्ध व विभाव रूप होती है। क्योकि वे दूसरे के सयोग की ओक्षा रखती है। अतः यह नय इन दोनो प्रकार की अशद्ध पर्यायों को लक्ष्य करता है । इस प्रकार की अशुद्ध पर्याये जीव व पुद्गल दोनों मे सम्भव है। जीव के औदयिक भाव का परिचय पहिले दे दिया जा चुका है। उसकी वे रागादि रूप पर्याये ही अश द्ध है । पुद्गल स्कन्ध पुद्गल की विभाव अनित्य अशुद्ध पर्याय है । इस पर्याय को विषय करने वाला नय विभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय है।
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy