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________________ १७. पर्यायार्थिक नय ५६३ ४. पर्यायार्थिक नय विशेप के लक्षण हुए दिखाई नहीं देते जैसे चन्द्र, सूर्य, सुमेरु आदि । स्थूल दृष्टि में न दीखने का यह अर्थ नही कि उन मे परिवर्तन हुआ ही नहीं । परिवर्तन तो अवश्य हुआ पर हानि और वृद्धि समान हो जाने के कारण उन की बाह्य सामूहिक रूप व्यज्जन पर्याय ध्रुव दिखाई देती रही। अनादि काल से इन पदार्थो का ब्रह्म रूप ऐसा ही है और अनन्त काल तक ऐसा ही रहेगा । या यो कह लीजिये कि इन की व्यज्जन पर्याय अनादि नित्य है । यह पर्याय केवल पुद्गल मे ही सम्भव है जीव मे नही, क्योंकि जीव अनादि से कर्म बन्धन सहित अशुद्ध है शुद्ध नहीं । ऐसे पदार्थो मे दीखने वाली स्थायी द्रव्य पर्याय या व्यज्जन पर्याय को विषय करना इस अनादि नित्य पर्यायाथिक नय का लक्षण है। अब इस की पुष्टि व अभ्यास के अर्थ कुछ आगम कथित उद्धरण देखिये। १. वृ न. च. १२०० "अकृत्रिमाननिथनान् शशिसूरादीना पर्यायान् ग्राही । य. सोऽनादिनिधनो जिनभणित. पर्यायार्थिक.।" (अर्थ.-- चन्द्रमा व सूर्य आदि पदार्थों की अनादि अनिधन अकृत्रिम पर्यायो को ग्रहण करने वाले नय को जिन देव ने अनादि नित्य पर्यार्थिक नय कहा है ।) २. प्रा. प.1८1पृ. ७३ "अनादिनित्य पर्यायार्थिक को यथा पुद्गल पर्यायो नित्यो मेर्वादि.।" (अर्थ- अनादि नित्य पर्यायार्थिक ऐसी जानो जैसे कि पुद्गल की नित्य पर्याय मेरु आदि । ) ३. नय चक्र गद्य पृ ६; 'पर्यायार्थी भवेन्नित्याऽनादीत्यर्थ गोचरः । चन्द्रमरुभूशैललोकादे प्रतिपादक. ।"
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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