SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 583
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५७ १७ पर्यायार्थिक नय ३. पर्यायार्थिक नय के भेद प्रमोद पर्यायार्थिक नय का आधार पर्याय है वह व्यञ्जन पर्याय हो ३ पर्यायार्थिक नय कि अर्थ पर्याय, स्थूल पर्याय हो कि सूक्ष्म पर्याय, के भेद प्रभेद लम्बे समय तक दीखने वाली पर्याय हो या अल्प समय तक दीलने वाली पर्याय, शुद्ध पर्याय हो या अश द्ध पर्याय । इन सव पर्यायों को हम स्थूल रूप से चार कोटियों में विभाजित कर सकते है । अनादि अनन्त पर्याय अनादि सान्त पर्याय, सादि अनन्त पर्याय, और सादि सान्त पर्याय । यद्यपि पर्याय सादि सान्त ही होती है परन्तु अनेक पर्यायो के समूह रूप व्यञ्जन पर्याय की अपेक्षा उपरोक्त चारो भेद देखे जा सकते है। उसमे अनादि पर्याय तो पुद्गल द्रव्य की उस व्यञ्जन पर्याय को कहते है, जो सूक्ष्म रूप से परिणमन शील रहने पर भी वाह्य मे सदा जू की तू दिखाई देती रहती है । इस स्थूल पर्याय का प्रत्येक क्षणिक परिणमन पूर्व पूर्व के सदृश ही रहते रहने के कारण इसमे कोई स्थूल विसदृशता दिखाई नहीं देती, और इसीलिये अनादि से अनन्त काल तक एक की एक ही बनी रहती है, इसी से अनादि अनन्त पर्याय कहलाती है-जैसे अकृत्रिम स्कन्धो रूप, सुमेरु, चन्द्र, सूर्य, चैत्यालय व प्रतिमा आदि, जिनमे चन्द्र सूर्य की नित्यता तो प्रत्यक्ष है, पर अन्य पदार्थों की केवल आगम गम्य है । जीव पदार्थ मे ऐसी कोई अनादि अनन्त पर्याय देखने मे नही आती, क्योकि ससार दशा मे उसमे कभी भी सदृश परिणमन नही होता। अनादि सान्त पर्याय जीव के और्दायक भाव को कहते है। क्योकि प्रत्यक प्राणी सदा से अशान्त है। वह कव पहिले पहिल अशान्त या अशुद्ध हुआ था यह कहना असम्भव है । जीव की अशुद्धता का आदि खोज निकालना असम्भव होने के कारण वह अनादि है। परन्तु यदि भव्य है तो किसी न किसी दिन इस अशुद्धता का अन्त करके शुद्ध व शान्त हो सकता है । ऐसे जीव की अशुद्धता
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy