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________________ - १७. पर्यायार्थिक नय १. पर्यायार्थिक नय सामान्य का लक्षण ही है अर्थ या प्रयोजन जिसका, वह पर्यायार्थिक नय है। इस दृष्टि मे उस गुण अथवा क्रिया से अतिरिक्त अन्य किसी द्रव्य नाम के पदार्थ की सत्ता नहीं है । (यहा गुण गुणी या पर्याय पर्यायी भाव का निरास किया गया है) २. प्र. सा. । त. प्र. । परि । नय न २ "तत तु....पर्यायनयेन तन्तुमात्रवनिज्ञानादिमात्रम् ।” अर्थः-उस आत्मा को यदि पर्यायार्थिक नय से देखे तो वह दर्शन ज्ञान मात्र है। अर्थात ज्ञान या दर्शन इन से अतिरिक्त अन्य आत्मा नाम का कोई पदार्थ ही लोक मे पाया नहीं जाता । जैसे कि तन्तु मात्र ही एक सत् है । इसके अतिरिक्त वस्त्र कोई वस्तु नहीं । (यहा भी गुण गुणी भाव रूप द्वेत का निपेध किया गया है ।) ३. रा. वा ।१।७।३।३८ "औपशमिकादिभावपर्यायो जीव इत्युच्यते पर्यायादेशात् ।" अर्थ.-पर्यायार्थिक नय से औपशमादिक भाव स्वरूप पर्याय ही जीव है, उस से भिन्न कुछ नही। (यहा भी पर्यायपर्यायी भाव का द्वित्व हटाया गया है।) ४. ध० ।१।८५३ ऋजुसूत्रवचनविच्छेदो मूलाधारो येपॉ नयाना ते पर्यायार्थिका । विच्छिद्यतेऽस्मिन् काल इति विच्छेद. । ऋजुसूत्रवचनं नाम वर्तमान वचन, तस्य विच्छेद. ऋजुसूत्र वचन-विच्छेदः । सकाल मूलाधारो येषा नयाना ते पर्यायार्थिका. । ऋजुसूत्रवचविच्छेदारभ्य आ एकसमया द्वस्तुस्थित्यध्यवसायिनः पर्यायार्थिका इति यावत् ।”
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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