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________________ १६ द्रव्यार्थिक नय सामान्य ५२३ १५ अन्वय ग्राहक अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय जिसके कारण कि उसका एक्य रूप बना रहता है, और व बालक वृद्धादि अवस्था बिखर कर पृथक पृथक व्यक्तियों के रूप मे दृष्ट नहीं हो पाती। उसी प्रकार वस्तु के सम्पूर्ण ही विशेष भावो मे उसका वह वह सामान्य भाव अनुगता कार रूप से ओत प्रोत हुआ देखा जाता है, जिसके कारण उन विशेषो रूप द्वैत मे भी वरावर अद्वैत व एक्य भाव बना रहता है, और वे सर्व विशेष बिखर कर पृथक पृथक सत् नही बन बैठते । द्रव्य की अपेक्षा सर्व ही अपने अवान्तर भेद रूप विशेप व्यक्तियों मे उसकी एक सामान्य जाति अनुगत रहती है, जिस के कारण वह अनेक होते हुए भी एक कहलाता है, जैसे व्यक्ति की अपेक्षा आम व नीवू आदि अनेक भेदो मे विभक्त उन सर्व का अन्तर्भाव एक वृक्ष की सामान्य जाति मे हो जाता है। क्षेत्र की अपेक्षा किसी भी पदार्थ के सख्यात या असख्यात अनेक प्रदेशो मे उसका एक सामान्य सस्थान अनुगत रहता है, जिसके कारण वह एक कहलाता है और उसके वे प्रदेश विखर कर पृथक पृथक होने नही पाते, जैसे कि अनत परमाणुओ से निर्मित भी यह शरीर एकाकार है । काल की अपेक्षा आगे पीछे प्रकट होने वाली क्रमवर्ती अनेक अर्थ वे व्यञ्जन पायो मे उस वस्तु के सामान्य त्रिकाली गुण तथा सामान्य त्रिकाली द्रव्य अनुगत रूप से रहते है, जिसके कारण परिवर्तन पाते हुए भी वह जूं की तूं बनी रहती है, खण्ड खण्ड होकर अनेक रूप नही हो जाती, जैसे कि बालक व वृद्धादि अवस्थाओ रूप से परिवर्तन पाता हुआ भी वह व्यक्ति जू का तू बना रहता है । इसी प्रकार भाव की अपेक्षा वस्तु के अनेक गणो में उसका वही पूर्वोक्त विविक्त सामान्य पारिणामिक भाव अनुगत रहता है, जिसके कारण वस्तु की एक्य रूपता की काई सीमा बनी रहती है और वह उसको उल्लधन करके अन्य रूप नहीं वन सकती, जैसे कि अनेक शरीरो मे क्रम पूर्वक वास कर लेने पर भी मै चेतन का चेतन ही ह, जड नही बन पाया हु । इसी प्रकार सर्वत्र अनुगत या अवय शब्द का अर्थ जानना।. .
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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